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३०४ | जन कथामाला (राम-कथा)
-आप कहना क्या चाहती हैं ? व्यर्थ के वाग्जाल से कोई लाभ नहीं, सीधी-सादी वात कहिए । ___-तो सती शिरोमणि ! सीधी सी बात इतनी है कि तुम लंकेश को स्वीकार कर लो। ___-आप ! आप सती होकर ऐसी बात कह रही हैं ? -सीता ने विस्मित होकर पूछा।
'–नारी की व्यथा नारी ही जानती है। पति की जीवन रक्षा के लिए अधिकार तो क्या वह तन का त्याग भी कर देती है। -मन्दोदरी के स्वर में विवशता थी।
-तो करिए अपने पति की जीवन रक्षा । -किन्तु लंकेश के प्राण तो तुम्हारी एक 'हाँ' पर निर्भर हैं।
—तो आप लंकेश की दूती वनकर मुझे धर्म से डिगाने आई हैं। एक सती का दूसरी सती को बरगलाना, आपका यह प्रयास अनूठा है !-सीता के स्वर में व्यंग्य उभर आया था।
पति के हित के लिए ..." - खूब पति का हित कर रही हैं, आप ! अच्छी है आपकी पति- - भक्ति और पातिव्रत धर्म जो उसको नर्क की आग में धकेले दे रही । हैं। धर्म-विरुद्ध आचरण करके पति-सेवा और उसकी मंगल-कामना का ढोंग पटरानीजी आप खूब निभा रही हैं। ___मन्दोदरी सीता की इस युक्तियुक्त बात का उत्तर न दे सकी। — सीता ही आगे कटु स्वर में बोली
-कुटिनी का कार्य कर रही हैं आप ! आपका तो मुख देखना भी पाप है । वात करने की तो वात ही क्या ? या तो आप यहाँ से चली जाइये और या मुझे कहीं और भिजवा दीजिए। ,
निराश मन्दोदरी सती की प्रतारणा मुख नीचा किये सुनती रही। सीता ही श्राप सा देते हुए कहने लगी