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' सीता पर उपसर्ग | ३०३ विचार करने से तो काम नहीं चलता। उत्साह दिलाने का प्रयास करती हुई कहने लगी___-प्राणेश ! इस प्रकार प्राण जलाने से क्या होगा? मेरी ओर भी तो देखिए । आपके विना मेरा और कौन है ? लंकेश के मुख से आह निकली । वोला
-प्रिये ! मुझे जीवित देखना चाहती हो तो तुम्हें वलिदान करना पड़ेगा।
-नारी तो होती ही है बलिदान के लिए। आप आज्ञा दीजिए। -आज्ञा नहीं, केवल इच्छा है मेरी। -पति की इच्छा ही पत्नी के लिए आज्ञा है। -तुम किसी तरह सीता को मेरे अनुकूल कर दो।
वज्रपात सा हुआ मन्दोदरी पर किन्तु पतिभक्ता ने मुख पर खेद की रेख नहीं आने दी । संयत स्वर में वोली.. -पति की जीवन-रक्षा के लिए यह भी करूंगी, लेकिन नाथ ! मुझे तनिक भी आशा नहीं कि वह तिल भर भी डिगेगी।
मैं जानता हूँ कि वह अत्यन्त दृढ़ है किन्तु सम्भवतः तुम्हारे समझाने का कुछ प्रभाव पड़ जाय ।
'जैसी स्वामी की इच्छा'-कहकर मन्दोदरी वहाँ से चल दी।
दूसरे दिन मन्दोदरी देवरमण उद्यान में सीता के पास गई और उससे प्रार्थना की
-सीते ! मैं लंकापति की पटरानी मन्दोदरी हूँ। लंकेश की समृद्धि विशाल है और उसकी शक्ति असीम । मैं तुम्हारी दासी बनकर रहूँगी । ........
सीता ने वीच में ही टोका