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२६४ | जैन कथामाला (राम-कथा) फड़क रहीं थीं एक प्रहार करने के लिए। आखिर सामने दिखाई दे ही गया-एक सूखे वाँसों का जाल । लक्ष्मण ने उसे निर्जीव जानकर एक प्रहार कर ही तो दिया। ___ खच् की ध्वनि हुई । वाँस एक ओर गिर गये और लक्ष्मण के पैरों के पास आ गिरा एक युवक का कटा हुआ शिर खून से लथपथ । अभी तो कटा था उनकी तलवार से । ताजा रक्त बहकर जंगल की भूमि को लाल कर रहा था । तलवार पर दृष्टि डाली तो वह भी खून से सनी । सामने दृष्टि गई तो बिना शिर का एक धड़ लटक रहा था वटवृक्ष की डाली से। ___अवाक से खड़े रह गये वे । सोचने लगे—'कहाँ तो मैं एकेन्द्रिय जीव की भी हिंसा नहीं करना चाहता था और कहाँ यह पंचेन्द्रिय संज्ञी जीव की हिंसा हो गई । अरे ! वहुत बुरा किया मैंने !' विचारधारा पलटी-'अनजाने में हआ है, यह पाप ।' पुनः विचार प्रवाह उठा'नहीं प्रमाद था मेरा। मुझे भली-भाँति देख-भालकर खड्ग प्रयोग करना चाहिए था।'
इस प्रकार मन में पश्चात्ताप करते हए उदास और चिन्तित से लक्ष्मण अग्रज राम के पास पहुंचे। उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाकर खड्ग दिखाया।
श्रीराम खड्ग को देखकर बोले
-अनुज ! तुमने यह क्या किया ? यह सूर्यहास खड्ग है । इसकी साधना करने वाला कोई उत्तम साधक था जो तुम्हारे हाथ से अनायास ही मारा गया । तुमने उसका घात करके अनर्थ कर डाला और कोई अनचाही वला मोल ले ली।
उत्तम साधक तो था ही सूर्यहास खड्ग का साधन करने वाला शंबूक । बारह वर्ष और सात दिन तक वृक्ष की डाली से उलटे मुंह लटक कर तपस्या करना क्या साधारण पुरुप का काम था ?