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२५४ | जैन कथामाला ( राम - कथा )
- मेरे पास प्रमाण है ?
- क्या प्रमाण हैं तुम्हारे पास ? - राजा ने उत्तेजित होकर
पूछा ।
- प्रत्येक साधु सशस्त्र योद्धा है ।
- झूठ ! यह मिथ्या दोषारोपण है । जैन श्रमण कोई अस्त्र नहीं रखते ।
- किन्तु स्कन्दक के पास शस्त्रों का भण्डार है ।
- मन्त्री ! तुम अपनी हठ किये जा रहे हो । जानते हो मिथ्या। दोषारोषण का क्या परिणाम भुगतना पड़ेगा । —दण्डक ने समझाने की चेष्टा की ।
पालक ने दृढ़तापूर्वक कहा
- महाराज ! मैंने आपका नमक खाया है । आपका अहित कैसे देखूं ? दण्ड की मुझे चिन्ता नहीं है । अधिक से अधिक आप प्राणदण्ड ही देंगे । आपके न रहने पर तो मुझे प्राणदण्ड से भी ज्यादा पीड़ा होगी ।
- क्या तुम्हें विश्वास है कि आचार्यश्री के पास शस्त्रों का भण्डार है । – राजा दण्डंक कुछ नरम पड़ा ।
-
- हाँ महाराज ! पूर्ण विश्वास ।
- दिखाई तो देते नहीं, उनके अस्त्र-शस्त्र ।
गाढ़
- उद्यान में गाढ़ दिये हैं जब आवश्यकता होगी, निकाल लेंगे । राजा दण्डक को पालंक के शब्दों पर अव भो विश्वास नहीं हो रहा था । आचार्यश्री के प्रति उसके हृदय में भक्ति थी । उसका मन मान ही नहीं रहा था कि परम अहिंसक जैन श्रमण कभी ऐसा कर सकते हैं । किन्तु पालक की दृढ़ता उसके चित्त को चंचल बना रही थी । वह गम्भीर विचार में डूब गया ।