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२४६ | जैन कथामाला (राम-कथा)
रत्नरथ और चित्ररथ ने भी प्रव्रज्या ली और मानवदेह त्यागकर अच्युत कल्प में अतिवल-महावल नाम के महद्धिक देव हुए।
वहाँ से अपना आयुष्य पूर्ण कर सिद्धार्थपुर के राजा क्षेमंकर की रांनी विमलादेवी के गर्भ में अवतरित हुए। गर्भकाल पूरा होने पर रानी ने कुलभूपण और देशभूषण दो पुत्र प्रसव किये।
वाल्यावस्था में ही वे घोप नाम के उपाध्याय के पास विद्याध्ययन के लिए भेज दिये गगे । वारह वर्ष तक गुरु के पास रहकर अनेक कला और विद्याओं में निपुणता प्राप्त की और तेरहवें वर्ष में गुरु के साथ वापिस लौटे।
मार्ग में आते हुए राजमहल के गवाक्ष में एक कन्या दिखाई दी तो दोनों भाई उस पर मोहित हो गये।
गुरुजी को तो राजा ने उचित आदर-सत्कार करके विदा कर दिया और दोनों भाई माता को प्रणाम करने राजमहल में आये। ___माता के पास वही कन्या बैठी थी। दोनों भाई उसकी ओर देखने लगे तो माता ने बताया
-यह तुम्हारी वहन कनकप्रभा है। जब तुम घोष उपाध्याय के यहाँ रहते थे तभी इसका जन्म हुआ था। इसीलिए तुम इसे पहले नहीं देख सके।
दोनों भाइयों को अपने काम-विकार पर वहुत लज्जा आई। वे वारम्बार स्वयं को धिक्कारने लगे।
तुरन्त उठे और गुरु के पास जाकर प्रवजित हो गये। - पिता क्षेमंकर पुत्रों के वियोग को न सह सके। अनशनपूर्वक मरण करके महालोचन नाम के गरुड़पति देव हुए। पूर्वजन्म के स्नेह के कारण ही इनका आसन कंपायमान हुआ और हम पर उपसर्ग