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सिंहोदर का गर्व हरण | २१५ गाय की भांति सिंहोदर को खींचते हुए लक्ष्मण अग्रज राम के पास ले गये और उनके चरणों में डाल दिया। श्रीराम के चरणों में नत होकर सिंहोदर वोला
-हे राम ! आप स्वयं यहाँ उपस्थित हैं, मुझे मालूम नहीं था। अव आपकी कृपा हो तो प्राण बचें, अन्यथा जीवन की कोई आशा नहीं। मेरा अपराध क्षमा करें।
राम ने मधुर शब्दों में कहा-सिंहोदर ! तुमको वज्रकर्ण का विरोध नहीं करना चाहिए। .-मैं उसका विरोध न करने का वचन देता हूँ।
राम ने वज्रकर्ण को बुलवाया। उसने आकर देखा कि स्वामी सिंहोदर बन्धनग्रस्त पडा है तो दयाधर्म का अनुयायी दयार्द्र हो
उठा । श्रीराम से विनय करने लगा. -प्रभो ! स्वामी को बन्धनमुक्त कर दीजिए।
श्रीराम ने सिंहोदर को सम्बोधित किया
-देखा सिंहोदर ! कितना अन्तर है तुममें और वज्रकर्ण में । तुम उसके नाश पर तुले हुए हो और यह तुम्हारी मुक्ति की प्रार्थना कर रहा है। अपकारी के साथ भी उपकार करना-यही तो है " धार्मिक व्यक्ति की विशेषता। .
सिंहोदर के मुख पर पश्चात्ताप झलकने लगा। __ रामचन्द्र के संकेत पर लक्ष्मण ने सिंहोदर को बन्धनमुक्त कर , दिया। अवन्ती नरेशसिंहोदर ने वज्रकर्ण को छोटे भाई के समान गले से लगाया और दशांगपुर का स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया। उसने घोपणा की
—आज से मैं किसी भी अर्हन्त धर्म के अनुयायी को प्रणाम करने के लिए विवश नहीं करूंगा।