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सिहोदर का गर्व-हरण | २११ राजा सिंहोदर की यह सम्पूर्ण योजना किसी व्यक्ति ने आकर वज्रकर्ण को बता दी।
राजा वज्रकर्ण ने उस पुरुष की बात ध्यान से सुनी और पूछा-भद्र ! तुम्हें इस योजना का ज्ञान कैसे हुआ ? उस पुरुष ने अपना वृत्तान्त सुनाया
मैं कुन्दनपुर नगर के ममुद्रसंगम वणिक् की पत्नी यमुना का विद्युदंग नाम का पुत्र हूँ। युवावस्था प्राप्त कर लेने के पश्चात् मैं व्यापार के निमित्त माल लेकर उज्जयिनी पहुंचा। वहाँ मेरी दृष्टि कामलता वेश्या पर पड़ी। उसके साथ एक रात्रि ही समागम करूंगा-यह सोचकर मैं उसके पास चला गया। किन्तु कामलता मुझसे लता की भाँति लिपट गई और मैं हो गया कामाभिभूत । उसके वश में पड़कर मेरा सम्पूर्ण धन छह मास में समाप्त हो गया।
एक दिन उस गणिका ने कहा-'सिंहोदर राजा की पटरानी श्रीधरा के पास जैसा कुण्डल है वैसा ही मुझे भी ला दो।' मेरे पास 'धन तो था ही नहीं, जो बनवा देता । मुझ कामान्ध को एक ही मार्गः . दिखाई दिया-चोरी। ' 'रानी श्रीधरा का कुण्डल चुरा लाऊँ और कामलता की कामना पूरी करूं' यह कुविचार मेरे मस्तिष्क में जम गया। मैं रात्रि के समय किसी प्रकार लुकता-छिपता रानी के शयनकक्ष तक जा पहुंचा। उस समय शैया पर सिहोदर व्यग्रचित्त वैठा था। रानी उसकी व्यग्रता का कारण पूछ रही थी। .
राजा-रानी जाग रहे थे अतः चोरी का तो विचार ही मेरे मस्तिष्क से गायब हो गया। दीवार से कान लगाकर उनकी बातें सुनने लगा। रानी श्रीधरा कह रही थी
-नाथ ! आज आप चिन्तित क्यों हैं ? आपको नींद क्यों नहीं आती?