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२१० जैन कथामाला (राम-कथा)
-~-मुनिवर ! आप इस घोर बन में किसलिए वृक्ष की भांति अडोल-अकम्प रहते हैं ?
-आत्म-कल्याण के लिए। -मुनिराज का संक्षिप्त सा उत्तर था। ___-खान-पान वर्जित इस विकट वन में आपका आत्म-हित किस प्रकार होता है ? __यह प्रश्न सुनकर मुनिश्री ने उसकी जिज्ञासा को समझा और धर्म का मर्म हृदयंगम कराया। राजा वज्रकर्ण को सुबुद्धि जागी। उसने गुरुदेव से श्रावक व्रतों के साथ-साथ कठोर अभिग्रह भी ग्रहण कर लिया-'पंच परमेष्ठी के अतिरिक्त किसी अन्य को नमन नहीं। करूंगा, सिर नहीं झुकाऊँगा ??........ .....
वज्रकर्ण गुरुदेव को नमन करके राजमहल वापिस लौट आया। उस समय भावावेश में उसने अभिग्रह तो ले लिया किन्तु निभाने में कठिनाई आ गई। स्वामी सिंहोदर को सिर झुकाये विना काम नहीं चल सकता था। राजा ने नई युक्ति निकाली। मुद्रिका में मुनिसुव्रत . स्वामी का मणिमय विम्ब' वनवाया और उसे देखकर सिर झुका दिया। सिंहोदर समझता कि सिर मुझे झुकाया जा रहा है । वज्रकर्ण
ने अपनी इस चतुराई से नियम का भंग भी नहीं होने दिया और ... स्वामी सिंहोदर को भी प्रसन्न रखा । ... .......
'चुगलखोर, चाटुकार और ईर्ष्यालु संसार में सदैव से. ही रहे हैं। किसी ने यह रहस्य सिंहोदर को बता दिया। अभिमानी सिंहोदर ने .. इसे अपना अपमान समझा । कुपित होकर उसने दशांगपुर पर .
आक्रमण करके वज्रकर्ण को मारने का निश्चय कर लिया।
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जिन विम्ब का वर्णन त्रिषष्टि के अनुसार है किन्तु लेखक इस मान्यता . से सहमत नहीं है। .....