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२०६ / जैन कथामाला (राम-कथा) पहुंचे। भरत राम के चरणों में गिर गये और कैकेयी ने उन्हें गले लगा लिया । कैकेयी का अश्रुजल राम का सिंचन करने लगा।
रानी कैकेयी ने राम को वहुत मनाया, तर्क-वितर्क दिये, पिता के धर्माराधन में पड़ा हुआ विघ्न वताया। किन्तु दृढ़वती राम अकम्प थे । वे अपने निर्णय से तनिक भी न हिले ।
भरत भी भाई के पाँव पकड़कर बैठे थे। वड़ी विचित्र स्थिति थी-भरत भाई के चरणों को छोड़ नहीं रहे थे; कैकेयी उन्हें वापिस ले जाने के लिए कटिवद्ध थी और राम-वे तो मर्यादा पुरुषोत्तम, थे। एक वार जो बात मुख से निकल गई प्राण देकर भी पालन करना उनका स्वभाव था।
समस्या का निदान किया सती सीता ने। वे जल का भरा घड़ा लेकर आई और बोलीं
-नाथ ! इस प्रकार इस विवाद का निपटारा तो कभी नहीं होगा। आप वापिस जायेंगे नहीं और अनुज भरत पिता का दिया राज्य लेंगे नहीं । मेरी सम्मति में तो पहले आपका यहीं राज्याभिषेक
१ राम और भरत का मिलन चित्रकूट नामक स्थान पर हुआ और राम ने
अपनी पादुका देकर उन्हें विदा किया । भरत ने अयोध्या लौटकर पादुका सिंहासन पर विराजमान की और स्वयं रक्षक के रूप में अयोध्या का शासन चलाने लगे।
(वाल्मीकि रामायण : अयोध्याकाण्ड) वाल्मीकि के अनुसार ही तुलसीकृत में भी यह सव वर्णन ज्यों - की त्यों है।
चित्रकूट में राम-भरत मिलाप के समय राजा जनक भी सपरिवार आते हैं और 'पुत्रि पवित्र किये कुल दो' कहकर सीताजी के पति के साथ वन-मन की सराहना करते हैं ।
(तुलसीकृत रामचरितमानस : अयोध्याकाण्ड, दोहा २६९-३०१)