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सीता-स्वयंवर | १८६ राजा जनक ने विवशतापूर्वक यह शर्त स्वीकार कर लो। रात्रि को ही जनक विद्याधर द्वारा अपने महल में पहुंचा दिये गये । प्रातः ही जनक ने धनुष चढ़ाने और सीता स्वयंवर की घोषणा कर दी।
रानी विदेहा इस आकस्मिक घोषणा से हतप्रभ रह गई। उसने पति से पूछा-नाथ ! यह नई बात कैसे हुई ? क्या रहस्य है यह?
सज्जन पुरुष अपनी अर्धांगिनी से कुछ छिपाते नहीं । जनक .. ने भी सब कुछ बता दिया। विदेहा वोली-स्वामी ! यह तो अधर्म हो जायगा । वाक्दान किसी को और कन्या का परिणय किसी दूसरे के साथ ! जनक ने समझाया
-प्रिये ! पहली बात तो यह है कि जो भी इस कन्या का पति होने वाला होगा वही तो होगा । हम लोग कर भी क्या सकते हैं ? दूसरी बात यह है कि म्लेच्छराज के साथ युद्ध में मैं स्वयं अपनी आँखों से राम का पराक्रम देख चुका हूँ। इस अकेले ने ही कोटिकोटि दुर्दमनीय म्लेच्छों को धराशायी कर दिया था। मुझे विश्वास है राम इस परीक्षा में भी सफल होगा। विदेहा ने भी परिस्थिति से विवश होकर मौन स्वीकृति दे दी।
सीता का स्वयंवर हुआ। विद्याधरों ने दोनों धनुष लाकर स्वयंवर मण्डप में रख दिये । अनेक राजा स्वयंवर में सम्मिलित हुए। एकएक करके राजा उठते और धनुष के पास जाते, सर्पो और अग्निज्वालाओं से धनुप आरक्षित हो जाते, निराश राजा अपना-सा मुंह लिए लौट आते । चढ़ाने की तो वात ही क्या-कोई राजा उन धनुषों को स्पर्श भी न कर सका।