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________________ १६४. जैन कथामाला (राम-कथा) गिराया। इसके पश्चात् जो दशरथ ने वाण-वर्षा प्रारम्भ की तो सभी । राजा हतप्रभ रह गये। __ कुशल रथी और सारथी की युगल जोड़ी ने शत्रुओं को रथहीन कर दिया। सभी के रथ भी भंग हो गये और मनोरथ भी। सिंह के समान गर्जना करने वाले शत्रु कायरों की तरह रण-भूमि से भाग भड़े हुए। विजय पताका फहराते हुए पति-पत्नी नगर की • ओर लौटने लगे। __ मार्ग में ही प्रसन्न वदन दशरथ ने कहा-देवी ! युद्धभूमि में तुमने जो अपूर्व साहस और कुशलता दिखाई उससे मैं अतिप्रसन्न हूं। तुम मुझसे कोई वर माँग ला । रानी ने उत्तर दिया-आर्य ! आप में और मुझ में भेद ही क्या है ? जो आपका है सो मेरा और जो कुछ मेरा है वह सब आपका । फिर क्या मांगू? दशरथ रानी की वाक् चातुरी पर मुग्ध हो गये, बोले -प्रिये तुम रणकुशल ही नहीं नीतिकुशल भो हो । तुम्हारी बुद्धिमत्ता ने मेरी जवान ही बन्द कर दी। मैं तुम पर और भी अधिक प्रसन्न हूँ । अव तो तुम्हें वर माँगना ही पड़ेगा। -फिर वही वात ! -कैकेयी ने प्यार भरी चितवन से पति की ओर देखते हुए कहा। पतिदेव निहाल हो गये। कहने लगे -रानी वर तो माँगो हो । मेरे मुख से निकले शब्द व्यर्थ नहीं · हो सकते। -यदि ऐसा ही है । स्वामी मुझ पर इतने ही कृपालु हैं तो मेरी एक विनय स्वीकार करें। -वह भी कहो।
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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