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राम-लक्ष्मण का जन्म | १६.३
कैकेयी भी बैठी पिता और पति की वातें सुन रही थी । वीच में ही बोल पड़ी
- आर्य ! यदि आपको अपनी रण चातुरी पर इतना ही विश्वास है तो रथ- संचालन में मेरी समता करने वाला कोई दूसरा सारथी नहीं मिलेगा ।
प्रसन्न होकर दशरथ वोले
- तो कहना ही क्या ? कल का सूर्यास्त सभी शत्रुओं के मस्तक झुके हुए देखेगा |
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प्रातःकाल की उपा ने देखा एक ओर हजारों राजा रथारूढ़ और दूसरी ओर नगर-द्वार से निकलता हुआ एक रथ जिसमें एक योद्धा खड़ा हुआ और सारथी वेश में एक वीर बाला - मानो उषा और सूर्य समवेत रूप से चले आ रहे हों । राजाओं ने अकेले दशरथ को देखा तो व्यंग्यपूर्वक खिलखिलाकर हँस पड़े । हरिवाहन ने सबको सावधान करते हुए कहा - अवसर अच्छा है । मार गिराओ इसे और राजकुमारी को छीन लो ।
वाण
बिना रणभेरी बजे ही एक साथ हजारों तीर छूटे और दशरथ की ओर लपके किन्तु वाहरे सारथी ! एकाएक घोड़े उछले, नीचे से निकल गये और रथ पुनः अपने स्थान पर । रथ इतना सधा हुआ ऊपर को उठा और भूमि पर आया कि रथी और सारथी के शरीरों में कम्पन भी न हुआ । पलक झपकते ही यह सब हो गया । अवाक् रह गये सव ! बहत्तर कला निपुण रानी ने अपनी रथ- संचालन विद्या कमाल दिखा दिया । दशरथ को अपनी विजय का पूर्ण विश्वास हो गया और उन्होंने धनुष टंकार की । पुनः हजारों वाण दशरथ के कण्ठच्छेद के लिए धनुषों से छूटे किन्तु इस वार दशरथ गाफिल नहीं थे । उनके अनेक लक्षी बाण ने मार्ग में ही सब तीरों को काट