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१६० | जैन कथामाला (राम-कथा)
और एक उपाय खोज ही निकाला । उपाय से सन्तुष्ट होकर दशरथ देवर्षि से निवेदन किया
- मुनिवर ! एक कष्ट और कीजिए । मिथिलापति राजा जनक को भी यह उपाय बता दीजिए। उनकी भी प्राणरक्षा हो जायगी । दूत को भेजने का समय नहीं हैं अन्यथा मैं आपसे यह घृष्टता न
करता ।
देवपि ने दशरथ की भावना को समझा और स्वीकृति देते हुए कहा
- आपका कथन सत्य है राजन् ! राक्षस जाति अनेक विद्या सम्पन्न है । वे पक्षी की भाँति उड़कर तीव्र वेग से कहीं भी जा सकते हैं जबकि सामान्य मानव नहीं । तुम्हारी यह उपकार वृत्ति तुम्हारे लिए ही कल्याणप्रद होगी ।
मुनि नारद वहाँ से चले और राजा जनक को सम्पूर्ण समाचार सुनाकर उसे प्राण रक्षा का उपाय बता दिया । उन्होंने अन्त में कहा- मिथिलापति ! राजा दशरथ तुम्हारे सच्चे शुभचिन्तक हैं । उन्होंने भी मुझे यहाँ आने की प्रेरणा दी 1
नारदजी तो अपना कर्तव्य पूरा करके चले गये किन्तु मन्त्री ने भी अपना कर्तव्य सुचारु रूप से पालन किया राजा दशरथ का एक लेप्यमय पुतला वनवा कर राज्य गृह में रख दिया । अयोध्यापति दशरथ रात्रि अन्धकार में चुपचाप नगरी से निकले और वन की ओर चले गये । यही उपाय राजा जनक ने भी किया और वे भी वन में निकल गये ।
रात्रि के अन्धकार में विभीषण अयोध्या आया और दशरथ के निजी कक्ष में पहुँचा । अंधेरे में पुतले को देखकर उसने उसे दशरथ समझा । तलवार के तीव्र प्रहार से पुतले का सिर धड़ से दूर जा पड़ा ।