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________________ सोदास और सिंहरथ | १५३ प्रजा और मन्त्री ने मिलकर राजा को सिंहासन से उतारकर नगर से वाहर निकाल दिया और सोदास के पुत्र सिंहरथ को सिंहासन पर विठाया। यह थी प्रजा के नैतिक बल तथा एकता की शक्ति । राजा सोदास राक्षस की भाँति वन-वन भटकने लगा। वनों में उसे भयंकर कष्ट भोगने पड़े। मानव मांस का वहाँ प्रश्न ही नहीं था, पशु मांस भी उसे कभी-कभी नहीं मिल पाता था। कई-कई दिन भूवे ही रह जाना पड़ता। कभी-कभी तो दिन-दिन भर पानी भी नसीव नहीं होता था। भूख-प्यास से पीड़ित सोदास अपने जीवन को निस्सार समझने लगता। एक बार भटकता-भटकता सोदास दक्षिणापथ में आया। वहाँ उसे कोई मुनि दिखाई पड़े। वह दुःखी तो था ही मुनि को वन्दन करके उसने सुख का उपाय पूछा। मुनि ने सुख के उपायभूत मद्य मांस त्यागरूप जिनधर्म का उपदेश दिया। राजा को मांस-भक्षण के दुःख का स्पष्ट अनुभव था। न वह मांस-लोलुपी होता और न उसे राज्य से निकाला जाता । मांस-भक्षण के कारण ही तो उसे वन-वन भटकना पड़ा था। उसने मांस-भक्षण त्यागकर श्रावक के व्रत ग्रहण कर लिए। श्रावकधर्म धारण करके राजा महापुरनगर में पहुँचा। वहाँ का राजा विना पुत्र के ही मर गया था। सोदास का पुण्य प्रगट हुआ और मन्त्रियों ने उसका राज्याभिषेक कर दिया। सोदास महापुर का राजा हो गया। ___ महापुर के सिंहासन पर बैठते ही सोदास ने एक दूत अपने पुत्र सिंहरथ के पास भेजा। दूत ने अयोध्या की राजसभा में उपस्थित होकर कहा -राजन्! मैं महापुर के राजा का विशेप दूत हूँ। सिंहरथ ने दूत का उचित स्वागत करते हुए पूछा
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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