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१४८ | जैन कयामाला (राम-कथा) एक ही वाक्य था--सिंहिका यथानाम तथागुण है। वह यथार्थ में सिंहनी ही है।
राजा नघुष के लौटने पर उसे सिंहिका की प्रशंसा सर्वत्र सुनाई पड़ी। रानी की प्रशंसा और अनेक शत्रुओं पर उसकी अद्भुत सफलता ने नघुप के मस्तिष्क में सन्देह उत्पन्न कर दिया। उसकी विचारधारा विपरीत दिशा को मुड़ गई-रानी सती नहीं है। सती तो केवल पति-सेवा में ही निपुण होती है.। किन्तु सिंहिका ! यह तो शत्रुओं में पुरुपों के समान गई और ऐसा विकट युद्ध किया जैसा बड़े-बड़े योद्धा भी न कर सकें। अनेक शत्रुओं से जूझ कर उन्हें मार भगाना-क्या साधारण कार्य है । अन्य पुल्पों के सम्मुख निर्लज्ज होकर जानाअसतीपना ही है। ___ इस दुर्भावना से ग्रसित होकर नघुष ने सती सिंहिका को त्याग दिया।
अच्छा फल मिला सिंहिका को प्रजा रक्षण का !
कुछ दिन पश्चात राजा नघुष को दाह ज्वर हो गया । अनेक उपाय किये गये किन्तु सव विफल । आयुर्वेद की सीमा समाप्त हो गई । वैद्य निराश हो गये। पण्डित, पुरोहित, निमित्तज्ञ, तांत्रिक सभी हार गये । दवा और दुआ कुछ काम न आई।
पतिव्रता रानी सिंहिका से पति का दुःख न देखा गया। वह पति के सम्मुख आकर वोली. हे नाथ ! यदि मैंने मन-वचन-काय से आपके अतिरिक्त किसी अन्य पुरुप की इच्छा न की हो तो इस जल के सिंचन से आपका दाह ज्वर शान्त हो जाय ।
इस प्रकार कहकर उसने अपने साथ लाये हुए जल से राजा का