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१४६ | जैन कथामाला (राम-कथा)
-समर्पण ! समर्पण का अर्थ है अपमान, तिरस्कार ! प्रधानजी, अयोध्या की प्रजा को यह लोग पद-दलित कर देंगे। घोर उत्पीड़न होगा मनुष्यों का । नहीं, यह उपाय विल्कुल ही गलत है। -रानी के स्वर में दृढ़ता थी।
-किन्तु दूसरा उपाय-युद्ध ! वह तो सम्भव ही नहीं। -क्यों?
-महारानीजी ! महाराज तो हैं नहीं। सेना का नेतृत्व कौन करेगा? और विना राजा के सेना अनाथ होती है।
--आप सेना तैयार कराइये । मैं नेतृत्व करूंगी। -आप ? - विस्मित रह गया मन्त्री।
-हाँ, मन्त्रीजी । मैं ! क्या हाथियों का मद-मर्दन करने के लिए सिंहनी सिंह की प्रतीक्षा करती है। आज देश पर संकट आ गया है और सिंहिका खामोश बैठी रहे। यह नहीं हो सकेगा। -सिंहिका का क्षात्र तेज उभर आया था। __ मन्त्री ने समझाने का प्रयास किया
—महारानीजी ! संसार क्या कहेगा? लोक मर्यादा भंग हो जायगी ?
-यदि लोक मर्यादा का विचार किया गया तो अपनी मर्यादा ही भंग हो जायगी । अपमानित और तिरस्कृत होकर काल का ग्रास वनने से अच्छा है रण-क्षेत्र में जूझ कर देश और धर्म की रक्षा के लिए प्राण झौंक देना। आप आगा-पीछा मत सोचिए । युद्ध की तैयारियाँ कीजिए। .
मन्त्री ने रानी की बात स्वीकार की। वह अपने सभी कूटनीतिक उपायों में विफल हो ही चुका था। रानी का यह कथन भी सत्य था