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________________ १३४ | जैन कथामाला (राम-कथा) - वज्रवाहु ने हर्पित होकर महा -अहा ! ये धीर-गम्भीर घोर तपस्वी साधु वन्दन करने योग्य हैं। चिंतामणि रत्न के समान ऐसे साधुओं के दर्शन बड़े भाग्य से होते हैं। और वह अपना वाहन (रथ) रोककर भक्तिपूर्वक मुनि की ओर देखने लगा। वज्रबाहु का रथ रुकते ही उदयसुन्दर ने भी रथ रोक लिया। कुमार की भक्ति भावना देखकर उसे उपहास सुझा; क्योंकि नव-' विवाहिता अंक में हो तो वैराग्य भरे वचन उपहासास्पद ही लगते हैं। उदयसुन्दर ने कहा-.. -कुमार ! क्या प्रवजित होने की इच्छा है ? : -हाँ हृदय में भावना तो ऐसी ही उठ रही है। __उदयसुन्दर ने वज्रवाहु के शब्दों को परिहास ही समझा। उसने पुनः परिहास किया: -फिर देर क्या है ? मैं भी आपके साथ ही प्रवजित हो जाऊँगा। ' -अपने वचन से पीछे तो न हट जाओगे ? । -बिल्कुल नहीं। --उदयसुन्दर ने हँसते हुए कह दिया। -बहुत अच्छा । --वज्रवाहु ने कहा और रथ से उतर पड़ा- . मानो वह मोहरूपी हाथी से ही नीचे उतरा हो। - दृढ़ कदमों से-वज्रवाहु मुनिश्री की ओर जाने लगा। उसकी दृढ़ता को देखकर उदयसुन्दर को स्थिति को गम्भीरता का आभास हुआ। वह दौड़कर वज्रबाहु के पास पहुंचा और कहने लगा.-जीजाजी ! आप तो मेरे परिहास का बुरा मान गये। वज्रबाहु ने गम्भीरता से उत्तर दिया-नहीं भद्र ! तुम्हारे परिहास का बुरा क्यों मानें ? तुमने तो
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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