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८८ ( जैन कथामाला (राम-कथा)
जम्भृक देवों ने इसका लालन-पालन किया और आकाशगामिनी विद्या दी। - यह नारद श्रावक के व्रतों को धारण करने वाला, कलहप्रिय और स्वेच्छाचारी है। हाथ में अक्षमाला तथा कमण्डल रखता है, खड़ाऊँ पहनता है और देवों के समान इधर-उधर घूमता रहता है। वालब्रह्मचारी होने के कारण इसकी सभी स्थानों पर अबाध गति है । इसी कारण इसे देवर्षि भी कहा जाता है।
नारद की उत्पत्ति का वृत्तान्त सुनकर मरुतराजा सन्तुष्ट हुआ । उसने रावण से क्षमा माँगी और हिंसक यज्ञों को न करने का आश्वासन दिया।
मरुतराजा ने अपनी कन्या कनकप्रभा देकर राक्षसराज को सन्तुष्ट करके विदा कर दिया।
-त्रिषष्टि शलाका ७१२ उत्तर पुराण ६७।१५५-१६३, २११-२५२
१ सम्भवतः क्षीरकदम्ब गुरु के पास विद्याध्ययन करने की घटना इसके
बाद की होगी। अथवा इन दोनों घटनाओं का ताल-मेल बिठाने का प्रयास विद्वज्जनों से अपेक्षित है।
--सम्पादक