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८४ | जैन कथामाला (राम-कथा)
-कोरी सहानुभूति से क्या लाभ ?-पर्वत के स्वर में संताप स्पष्ट उभर आया था। ब्राह्मण कहने लगा:
-लाभ ? लाभ क्यों नहीं ? वत्स मैं कोरी सहानुभूति प्रदर्शित करने नहीं आया हूँ। अपने मन्त्रवल द्वारा मैं लोगों को मोहित करके तुम्हारे मत का प्रचार कर सकता हूँ।
पर्वत के मुख पर चमक आ गई । अंधा क्या चाहे, दो आँखें। प्रसन्न होकर वोला
-क्या? क्या सचमुच आप ऐसा कर सकते हैं? क्या आप मेरे लिए अपने मन्त्रवल का प्रयोग करेंगे? इतना कष्ट उठायेंगे मेरे कारण ?
-अवश्य ! तुम नहीं जानते मुझे अपने गुरुभाई के पुत्र के । तिरस्कार से कितना दुःख हुआ है । तुम्हारी प्रसिद्धि से मुझे हार्दिक प्रसन्नता होगी।
-बड़ा उपकार होगा आपका मुझ पर ! क्या मैं अपने उपकारी का नाम भी जान सकता हूँ?
–भद्र ! मेरा नाम शांडिल्य है। मुझे भी तो आत्म-सन्तोष मिलेगा, इस कार्य से। __दोनों धूर्त साथ-साथ रहने लगे। असुर महाकाल ने अपने अधीनस्थ असुरों के द्वारा नगरी में भाँति-भाँति के रोग फैला दिये। रोग देवकृत थे अतः वैद्यगण चिकित्सा न कर सके, वैद्यक शास्त्र व्यर्थ हो गया । रोगियों का जीवनदाता बना पर्वत । पर्वत के कर-स्पर्श से ही रोग शान्त हो जाता।
साधारण मनुष्य का स्वभाव है कि वह भूत को भूलकर वर्तमान में जीता है। जो पर्वत कल तक घृणा और तिरस्कार का पात्र