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हिंसक यज्ञों के प्रचार की कहानी | ६३ असुर हुआ। अवधिंज्ञान से उसने सगर के षड्यन्त्र को जान लिया। राजा अयोधन की राजसभा में हुए अपमान ने उसे क्रोधित कर दिया। उसने निश्चय कर लिया कि 'सगर तथा अन्य राजाओं को किसी-न-किसी प्रकार नष्ट कर ही दूंगा।' अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की इच्छा से वह राजाओं के दोषों को खोजता हुआ इधर-उधर घूमने लगा। उसे अव किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश थी जो स्वयं भी लोगों द्वारा अपमानित और तिरस्कृत होकर वदले की आग में जल रहा हो। ईर्ष्या के वश में होकर वह लोगों को पाप-मार्ग की ओर अधिक से अधिक धकेलने में तनिक भी संकोच न करे वरन् ऐसी परिपाटी चलाये कि धर्म समझकर लोग इसका पालन करें और नरक कुण्ड में जा गिरें। .
ऐसा व्यक्ति मिला उसे पर्वत ।
पर्वत उस समय अपमानित होकर शुक्तिमती नदी के किनारे पर्वत की तलहटी में अपमानित जीवन विता रहा था। बदले की आग ने उसे विवेकान्ध कर दिया था। असुर महाकाल ब्राह्मण का रूप बनाकर उसके समक्ष आकर बोला
-वत्स पर्वत ! मैं तुम्हारे पिता का मित्र हूँ। हम दोनों वाल्यावस्था में गौतम नाम के उपाध्याय के पास विद्या प्राप्त करते थे। नारद तथा नगरवासियों द्वारा तुम्हारे अपमान को सुनकर मुझसे रहा नहीं गया और यहाँ चला आया।
कुछ देर तक तो पर्वत उस ब्राह्मण को देखता रहा । फिर निराश स्वर में कहने लगा
-तात ! मैंने आपको पहिचाना नहीं।
-पहचानोगे भी कैसे ? पहले कभी मैं आया ही नहीं । यदि तुम्हारे अपमान की बात न सुनी होती तो अव भी न आता। मुझे बहुत दुःख है।