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हिंसक यज्ञों की उत्पत्ति | ६७ वहुत चिन्तित हुए। हृदय में विचार करने लगे-मुझ जैसा गुरु होते हुए भी मेरे शिप्य नरक को जायँ, यह तो बड़ी विचित्र वात है; किन्तु श्रमण कभी मिथ्या नहीं बोलते । उनके वचन सत्य ही होते हैं। इनमें से एक अवश्य ही भद्र परिणामी और शेष दो.रौद्र परिणामी हैं। .
कौन भद्र परिणामी है और कौन रौद्र परिणामी-यह जानने के लिए गुरु किसी योग्य उपाय की खोज करने लगे।
एक दिन गुरुजी ने हम तीनों को तीन मुर्गे देकर आदेश दिया. -वत्स ! जहाँ कोई न देखता हो ऐसे एकान्त स्थान पर ले जाकर इन्हें मार डालो।
• तीसरे मुनि ने कहा-सवसे पीछे बैठा विद्यार्थी नारद है। यह भी ब्राह्मण है । यह सदा धर्मध्यान में लीन रहता है और अहिंसा रूप धर्म का ही पालन करेगा। गिरि तट पर परिग्रह त्याग कर तप में लीन हो जायेगा और कालधर्म प्राप्त करके अनुत्तर विमान में अहमिंद्र होगा।
तीनों शिष्यों के वचन सुनकर आचार्य श्रुतधर सन्तुष्ट हुए और कहने लगे--तुमने अष्टांग निमित्त को भली-भांति समझ लिया है। तुम्हारा कथन सत्य है।
यह सुनकर उपाध्याय क्षीरकदंव को बड़ा दुःख हुआ और वह उदासीनतापूर्वक लौट आये।
-उत्तर पुराण पर्व ६७, श्लोक २६१-२७४ ३ (ख) नारद की बुद्धिमत्ता और पर्वत की जड़वुद्धि का प्रदर्शन करने
वाली एक अन्य घटना और है। यह घटना वसु के राजा बनने के बाद की है । घटना इस प्रकार है--
एक दिन नारद और पर्वत समिधा (यज्ञ की लकड़ी) और फलफूल लेने गये। उन्होंने मार्ग में देखा कि आठ मयूर नदी-प्रवाह का जल पीकर वापस लौट रहे हैं । उन्हें देखकर नारद ने कहा- भाई पर्वत !