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________________ मरुतराजा को प्रतिवोध | ६१ अन्नि में हवन करने के लिए निरपराध पशुओं को ले जाया जा रहा . था तो मैंने राजा से ऐसा यज्ञ न करने को कहा। मेरे विरोध को वे लोग सह न सके और मुझे मार-पीटकर भगा दिया । राजन् ! मैं निर्वल. था अपने प्राण वचाकर भाग निकला और आप वलवान हैं उन मूक पशुओं की रक्षा कीजिए। थोड़े से विलंब से ही असंख्य . पशु यज्ञाग्नि में भून दिये जायेंगे। शीघ्रता करिए। .. निरपराध पशुओं की धर्म के नाम पर सामूहिक हत्या-रावण तिलमिला गया । कुपित होकर तीव्र वेग से चला और शीघ्र ही मरुत की यज्ञशाला में जा पहुँचा । पीछे-पीछे नारद भी थे। -क्या हो रहा है, यह ? -महबली रावण के कर्कश स्वर से 'दिशाएं गूंज गईं। ..यज्ञकर्ता पुरोहित और यजमान मरुत ने विस्मित होकर देखा-सामने मरु के समान महाबली लंकेश खड़ा था । उसके कुपित भ्र भंग को देखकर सभी सहम गयें। किसी के मुख से एक शब्द भी नहीं निकला। -किसलिए इन पशुओं को बाँधा गया है? --रावण ने पुनः पूछा। ... पुरोहित ने डरते हुए बताया.-इन्हें यज्ञ में हवन किया जायगा? -ऐसा घोर पाप ? इतने निरीह प्राणियों की हत्या ? " -पाप नहीं, हत्या भी नहीं ! ये सब इस पवित्र अग्नि में देह त्यागकर स्वर्ग को चले जायेंगे । . -और आप लोग सीधे मोक्ष को।-रावण विद् प हँसी हँसते हुए बोला। ... .... . . .
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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