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मरुतराजा को प्रतिबोध
माहिष्मती नगरी का राज्य-भार सहस्रांशु के पुत्र को देकर राक्षसेन्द्र रावण आकाश मार्ग से चल दिया। मार्ग में सामने से आते हुए मुनि नारद दिखाई पड़े। मुनि का शरीर यष्टि और मुष्टि प्रहारों से जर्जरित (लकड़ी और मुक्कों अथवा घंसों की चोट से घायल) था। उनके मुख से क्षुभित शब्द 'अन्याय, अन्याय' निकल रहा था।
रावण ने मुनि नारद की इस दुर्दशा को देखा तो पूछ बैठा
-कहां से आ रहे हैं, मुनिवर ? किसने आपकी यह दशा कर दी ? कैसा अन्याय हुआ है आपके साथ ?
लंकापति के मधुर सम्बोधन और सहानुभूतिपूर्ण वचनों से नारद आश्वस्त हुए। कहने लगे
-राक्षसेन्द्र ! अन्याय मेरे साथ नहीं, मूक पशुओं के साथ हो रहा है।
-कहाँ ! कौन कर रहा है, यह अन्याय ? आप पूरी बात बताइए, देविपि।
देवर्षि बताने लगे--
इस राजपुर नगर में मरुत राजा राज्य करता है । कुछ मांसलोलुपियों की प्रेरणा से वह हिंसक यज्ञ कर रहा है । उस यज्ञ की