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________________ ५८ | जैन कथामाला (राम-कथा) मुनि निर्दोष वाणी में बोले -दशानन ! मुनि तो स्वेच्छा-विहारी होते हैं। मैं माहिष्मती . नगरी का स्वामी राजा शतबाहु हूँ। अपने पुत्र सहस्रांशु को राज्य देकर दीक्षित हो गया था। इधर से निकला तो नीचे उत्तर - आया। अंजलि जोड़कर रावण कहने लगा -प्रभो ! मैं दिग्विजय के लिए निकला । यहाँ नदी तट पर मैं भगवान का ध्यान कर रहा था कि आपके पुत्र ने उसमें विघ्न डाल दिया। मैंने कुपित होकर उसे वन्दी बना लिया । मैं तो उसे मिथ्यात्वी समझ रहा था। किन्तु अब समझा कि उससे यह भूल अनजान में रावण ने सहस्रांशु के बन्धन खुलवाकर उसे बुलवाया। सहस्रांशु ने अपने पिता को देखा तो लज्जित होकर षाष्टांग प्रणाम किया। सहस्रांशु' को सम्बोवित करके रावण ने कहा १ नगरी का नाम तो माहिष्मती ही है किन्तु यह कैलास पर्वत के समीप बताई गई है और राजा का नाम सहन्नांशु के बजाय हैहयराज, अर्जुन है। हाँ, इसे हजार भुजा वाला बताया गया है । साथ ही नदी का नाम है रेवा के वजाय नर्मदा । . रावण शिवलिंग की पूजा करता है और अर्जुन थोड़ी दूर ही अपनी पत्नियों के साथ जल-क्रीड़ा । पानी के बहाव से रावण के पुष्प बह जाते हैं। दोनों में युद्ध होता है । अर्जुन रावण को पकड़ ले. जाता है । उसे बन्धनमुक्त कराते हैं ऋषि पुलस्त्य ।। ऋपि पुलस्त्य रावण के पितामह (बावा) थे। अपने पौत्र का पराभव उन्हें सहन नहीं हुआ । पौत्र मोह के कारण वे वहाँ आये और उन्होंने रावण को बन्धनमुक्त कराया।
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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