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________________ सहस्रांशु की दीक्षा | ५७ - रावण उठ खड़ा हुआ और कहने लगा-कौन मिथ्यात्वी है जो मेरे धर्मध्यान में विघ्न कर रहा है ।। आकाश मार्ग से जाते हुए एक विद्याधर ने लंकेश के क्रोधयुक्त शब्द सुने तो नीचे उतर कर कहने लगा -राक्षसपति ! यहाँ से थोड़ी ही दूर आगे चलकर माहिष्मती नगरी है । वहाँ का राजा सहस्रांशु बड़ा वलवान है । एक हजार राजा उसकी सेवा करते हैं। उसका अन्तःपुर भी बहुत बड़ा है । अपनी हजार रानियों के साथ वह जलक्रीड़ा कर रहा है । जलक्रीड़ा निर्विघ्न हो इसलिए उसने एक वाँध सा वना कर जल रोक लिया था। उन सवकी निर्द्वन्द्व जल-क्रीड़ा से जलदेवी भी क्षुब्ध होकर चली गई। अव उसने स्वेच्छा से जल छोड़ दिया है । रुका हुआ जल तीव्र वेग से आया और तुम्हारा शिविर डूब गया। -लंकेश ! यह देखो उन रानियों के निर्माल्य द्रव्य-जूड़े के पुष्प आदि जल में बहकर आ रहे हैं । रावण को राजा सहस्रांशु पर बड़ा क्रोध आया । उसने तुरन्त राक्षस वीरों को उसे पकड़ लाने की आज्ञा दी। किन्तु सहस्रांशु भी निर्बल नहीं था, उसने राक्षसों को पराजित करके भगा दिया। दशानन स्वयं गया और विद्यावल से मोहित करके उसे वन्दी बना लाया। X x . हर्षोत्फुल्ल रावण शिविर में अपने सभासदों सहित वैठा था उसी समय चारणऋद्धिधारी मुनि शतबाह आकाश से उतरे। दशानन ने भक्तिपूर्वक उन्हें वन्दन किया और मुनिथी को उच्चासन पर बिठाकर स्वयं भूमि पर बैठ गया। मुनिश्री ने धर्मलाभ रूप आशीर्वाद दिया। विनम्रतापूर्वक रावण ने पूछा. -भगवन् ! आपके आने का कारण ?
SR No.010267
Book TitleJain Kathamala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1977
Total Pages557
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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