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४८ | जैन कथामाला (राम-कथा) वाहरी शक्ति के अभय की आवश्यकता नहीं। --वाली का प्रत्युत्तर
था।
-दशानन की शरण ले लीजिए आपका कल्याण होगा।
-जिसने पंचपरमेष्ठी की शरण ले ली है, उसे किसी अन्य की शरण की क्या आवश्यकता ? दूत ! अधिक वातों से क्या लाभ ? जाकर राक्षसेन्द्र से कह दो-बाली उसे कभी स्वामी नहीं मानेगा। - वाली की स्पष्टोक्ति ने दूत की जवान वन्द कर दी । वह अभिवादन करके लौट आया और रावण को सम्पूर्ण स्थिति से अवगत करा दिया।
अभिमानी रावण का दर्प जाग उठा। वह राक्षस सुभटों को लेकर किष्किधा पर जा चढ़ा । वानर-वीरों ने भी चूड़ियां नहीं पहनी हुई थीं। वे भी अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर रणभूमि में उतर पड़े
और लगे राक्षसों से जूझने । दोनों ओर से भयंकर संग्राम होने लगा। वीरों के रक्त से पृथ्वी लाल हो गई।
वानर वीरों की विकट मार से राक्षस सेना विचलित होकर भाग गई । स्वयं रावण रणक्षेत्र में उतरा और भयंकर संहार करने लगा।
भीषण हिंसा को देखकर वाली के हृदय में असीम करुणा जाग्रत हुई। अभी तक उसने शस्त्र नहीं उठाया था। वह हिंसा से विरक्त था । किसी भी प्राणी को दु:खी देखकर उसका रोम-रोम सिहर उठता। यहाँ तो हिंसा का भीषण नृत्य ही हो रहा था। करुणा वाली ने रावण को ललकारा--
-लंकेश ! विवेकी पुरुष एकेन्द्रिय जीव की भी व्यर्थ हिंसा नहीं करते और तुम यहाँ भीषण संहार कर रहे हो । यदि तुम्हें अपने बल का अत्यधिक दर्प है तो आओ मुझसे अकेले ही युद्ध करके निर्णय कर लो। अनेक प्राणियों के हनन से क्या लाभ ?