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४४ | जैन कथामाला (राम-कथा)
-भद्र ! तुम्हारा कथन यथार्थ है। मैं यम को इन्द्रपुरी का रास्ता दिखाने हेतु अभी प्रस्थान करता हूँ। __ महावली रावण अपनी सेना सहित किर्णिकधा की ओर चल दिया। वहाँ यम द्वारा निर्मित नरक के समान ही भाँति-भाँति के घोर कष्ट देने वाले सात नरक दिखाई दिखाई दिये । दशानन ने वे सव नष्ट कर दिये और आदित्यराजा तथा ऋक्षराजा दोनों किष्किधि पुत्रों को मुक्त कराया।
भयभीत होकर नरक-रक्षक वहां से भाग गये और यमराजा के पास जाकर पुकार करने लगे। क्रोधित होकर यम सेना सहित रावण के सम्मुख आया और अपने वल के अनुरूप घोर युद्ध करने लगा। रावण ने युद्ध में उसे पराजित कर दिया और यम प्राण बचाकर भाग निकला।
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रावण को यम से लड़ने के लिए नारदजी ने प्रेरित था। एक ओर तो उन्होंने रावण को 'क्या मर्त्य-लोक के मनुष्यों को मारते हो? इन्हें मारने वाले यम पर ही विजय प्राप्त कर लो' कहकर भड़काया और जव रावण यमलोक पर चढ़ाई करने लगा तो यम को जाकर यह बताया कि 'राक्षसराज रावण आप पर विजय प्राप्त करने की इच्छा से आ रहा है।
युद्ध के दौरान यम ने जब अपना कालदण्ड रावण पर मारना चाहा तो ब्रह्माजी प्रकट होकर बोले-'यमराज! मैंने रावण को देवताओं से अवध्य रहने का वरदान दिया है। यदि तुम्हारे काल-दण्ड से यह मर गया तो और न मरा तो दोनों ही दशाबों में मेरा वचन असत्य हो जायगा । इसलिए तुम इस पर यमदण्ड का प्रहार मन करो !'
ब्रह्माजी की बात सुनकर यमराज ने अपना कालदण्ड रावण पर नहीं छोड़ा और वे स्वयं अदृश्य हो गये। परिणामस्वरूप रावण ने स्वयं को विजयी मान लिया।
[वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड]