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नगर दर्शन के बाद कुवलयचन्द्र ने आस्थान-मण्डप में प्रवेश किया तथा विविध पंचरंगी मणियों से निर्मित मेधधनुष की शोभा से युक्त सिहासन पर वह बैठा। जय-जय शब्दों के साथ महाराज और सामंतों ने मणियों से चित्रित गीले कमल एवं कोमल हरे पत्तों से ढके हुए कंचनमणि निर्मित कलशों को हाथों पर उठाकर मार्गलिक शब्दों के साथ कुमार का अभिषेक किया तब राजा और बृद्ध सामंतो ने कुमार को आशिर्वाद दिया और वे सामने आसनों पर बैठ गये।285
इन्द्रमहः-उद्योतनसूरि ने नवपावस के बाद, इन्द्रमह, महानवमी, दीपावली, देवकुल-यात्रा, बलदेव महोत्सव आदि का उल्लेख किया है ।286 इन्द्रमह वड़े धूम-धाम से मनाते थे। जैन परम्परा के अनुसार भरत चक्रवर्ती के समय से इन्द्रमह का प्रारम्भ माना जाता है ।287 रामायण, महाभारत एवं भास के नाटकों में भी इसका उल्लेख है ।288 वर्षा के बाद जब रास्ते स्वच्छ हो जाते तब इस उत्सव की धूम मचती थी ।289 जैन साहित्य में इन्द्रमह मनाने के अनेक उल्लेख हैं।290
इन उत्सवों में आमोद प्रमोद के साथ इन्द्रकेतु की पूजा भी होती थी।281 इन्द्र की पूजा कृषक अपनी अच्छी फसल के लिये एवं कुमारियाँ अच्छे सौभाग्य प्राप्ति के लिए किया करती थीं ।-92 सौभाग्य प्राप्ति का हेतु होने के कारण इन्द्र पूजा वसंत ऋतु में भी की जाने लगी थी।293 इन्द्रमह एक लोकोत्सव के रूप में मनाया जाता था।294
महानवमी:-कुवलयमाला में महानवमी पर्व का दो वार उल्लेख हुआ है। स्थाणु को ठगने के बाद मायादित्य जब लौट कर आता है तो उसे सुनाता है कि वह नवमी महोत्सव के लिए बलि दने हेतु किसी गृहस्वामी द्वारा पकड़ लिया गया था और जब घर के सब लोग नवी का स्नान करने नदी में गये तो वह पहरेदार की आँख बचाकर भाग आया ।265 दूसरे प्रसंग में वर्षा ऋतु के पश्चात महानवमी महोत्सव मनाये जाने का उल्लेख है। महानवमी
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