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हिण्डी के अनुसार एक स्वामिभक्त पत्नी यह प्रार्थना करती थी कि अगले जन्म में उसे वही पति प्राप्त हो।
गणिका गणिकाओं की उत्पत्ति को प्रथम चक्रवर्ती सम्राट् (चकवत्ती) भरत के समय से देखा जा सकता है एक कहानी220 के अनुसार सामंतो ने अपनी कन्याओं का भरत के समक्ष प्रस्तुत किया। गणिका आगमन पर प्रधानरानी ने सम्राट से कहा कि उन्हें आगन्तुक-कक्ष तक ही सीमित रखा जाय और घर के अन्दर प्रवेश करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। गणिकाओं को गणों को सौंप दिया गया। गणों के साथ सम्बन्धित होने के कारण, उन्हें गणिका नाम से सम्बोधित किया गया।
वासुदेव हिण्डी में इसी प्रकार की एक अन्य कहानी का संदर्भ है ।221 चूंकि भरत की चौंसठ हजार पत्नियाँ पहले से ही थी इसलिए जो बत्तीस हजार कुमारियों को पुन: उनके सम्मुख प्रस्तुत किया गया, उन्हें भरत ने स्वीकार नहीं किया।
हरिभद्र ने समाज में नारी के स्थान का चित्रण कई रूपों मे किया है ।222 यथा कन्या, पत्नी, माता, विधवा, साध्वी और वेश्या।
कन्याभारतीय समाज में कन्याओं का जन्म संपूर्ण परिवार को गंभीर बना देता है। उसकी पवित्रता और सुरक्षा के सम्बन्ध में अत्यन्त ऊंचे भाव एवं उसके विवाह और भावी जीवन की चिंता से समस्त परिवार और मुख्य रुप से माता-पिता त्रस्त रहते आये हैं। राजघरानों में भी कन्या की सुरक्षा का सभी प्रकार का प्रबंध रहता था। कन्या के पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा का पूरा प्रबंध रहता था। पढ़ने-लिखने के अतिरिक्त चित्र-कला और संगीत-कला की पूरी शिक्षा कन्याओं को दी जाती थी। कुसुमावली चित्र और संगीत कला के अतिरिक्त काव्य-रचना भी जानती थी। उसने सिंह कुमार के पास विरहविधुर हंसिनी के चित्र के साथ एक हंसपदिका
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