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नाडलाई (पाली) राजस्थान के शांतिनाथ मन्दिर (श्वेताम्बर) के अधिष्ठान पर भी काम क्रिया में रत कई युगलों का अंकन हुआ है। जैन मन्दिरों पर देवताओं की शक्ति सहित आलिंगन मूर्तियाँ एवं कामक्रिया से सम्बन्धित अंकन परम्परा सम्मत नहीं है। जैन धर्म उदार धर्म रहा है। जिसकी धार्मिक मन्याताओं में समय के अनुरूप कुछ आवश्यक परिर्वतन या शिथिलन होते रहें हैं। मध्ययुग तांत्रिक प्रभाव का युग था। फलत: जैन धर्म में भी उस प्रभाव को किंचित् नियन्त्रण के साथ स्वीकार किया गया जिसे कला में भी उपयुक्त स्थलों पर अभिव्यक्ति मिली। पर इस प्रभाव को उद्दाम नहीं होने दिया गया जैसा कि खुजराहो और उड़ीसा के हिन्दू मन्दिरों पर कामक्रिया से सम्बन्धित अंकनो के सन्दर्भ में भी देखा जा सकता है। जैनग्रन्थ हरिवंशपुराण (जिनसेन कृत, 783 ई.) में एक स्थल पर उल्लेख है कि सेट कामदत्त ने एक जिन मन्दिर का निर्माण किया और सम्पूर्ण प्रजा के आर्कषण के लिए इसी मन्दिर में कामदेव और रति की भी मूर्ति बनवायी ग्रंथ में यह भी उल्लेख है कि यह जिन मन्दिर कामदेव के मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है और कौतुकवश आये लोगों को जिन धर्म की प्राप्ति का कारण है।50 जिन मूतियों के पूजन के साथ ग्रंथ में रति और काम देव की मूर्तियों के पूजन का भी उल्लेख है।1 हरिवंश पुराण का उल्लेख स्पष्टत: जैन धर्म में आये शिथिलन और उसके उद्देश्य को स्पष्ट करता है।
वास्तुकला कुवलयमाला में से वास्तुकला से सम्बन्धित अनेक परिभाषिक शब्दों का उल्लेख किया गया है। विभिन्न प्रसंगों में उल्लखित निम्न शब्द स्थापत्य की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण हैं।
ध्वजा के लिए धवल-ध्वज प, कोटिपताका तथा सिंह पट 54 आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। भवनों की ध्वजाएं इतनी ऊंची होती थीं कि सूर्य के घोड़े उनकी हवाओं से अपने परिश्रम को शान्त करते थे। इस साहित्यक अभिप्राय का भारतीय साहित्य में बहुत उल्लेख हुआ है।
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