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जैन प्रतिमाविज्ञान के प्रारम्भिक विकास उत्तर भारत में हुआ। लोहानीपुर (पटना) एवं चौसा (भोजपुर) से मिली प्रारम्भिक जैन मूर्तियां मीली हैं। ऋषमनाय की लटकती जटाओं, पाश्वनाथ के सात सर्पफण, जिनों के वक्षस्थल में श्रीवत्स चिन्ह और शीर्षभाग में उष्णीश तथा जिन मूर्तियों में अष्टप्रतिहार्यो और दोनों पारम्परिक मुद्राओं (कायोत्सर्ग एवं ध्यान मुद्रा) का प्रदर्शन सर्वप्रथम इसी क्षेत्र में हुआ। दक्षिण भारत की जिन मूर्तियों में उष्णीश नहीं प्रदर्शित है। श्रीवत्स चिन्ह भी वक्षस्थल के मध्य में न होकर समान्यत: दाहिनी ओर उत्कीर्ण है 145 जिन मूर्तियों में लाछनों एवं यक्ष-यक्षी युगलों का निरूपण भी सर्व प्रथम उत्तर भारत में ही हुआ। दक्षिण भारत के मूर्ति अवशेषों महाविद्याओं, 24 यक्षियों, आयापट्ट, जीवंत स्वामी महावीर, जैन युगल आदि की मूर्तियाँ नहीं प्राप्त होती हैं। ज्ञातव्य है कि उत्तरभारत में इनकी अनेक मूर्तियाँ
उत्तरभारत में ऋषभनाथ की सर्वाधिक मूर्तियाँ हैं। इसके वाद पार्शवनाथ, महावीर और नेमिनाथ की मूर्तियाँ हैं। पर दक्षिणभारत में महावीर और पाश्वनाथ की सर्वाधिक मूतियाँ बनी। ऋषभनाथ की मूर्तियाँ तुलनात्मक दृष्टि से नगण्य हैं। उत्तर भारत में चक्रेश्वरी, अम्बिका एवं पद्मावती यक्षियों की सर्वाधिक मूर्तियाँ हैं। पर दक्षिण भारतमें चक्रेश्वरी के स्थान पर चंद्रप्रभ की यक्षी ज्वालामालिनी की सर्वाधिक मूर्तियाँ बनी। ज्वालामालिनी के बाद अम्विका एवं पद्मावती की सर्वाधिक मूर्तियाँ हैं। यक्षों में दक्षिण भारत में गोमुख, कुबेर, धरणेन्द्र एवं मातंग की मूर्तियाँ मिली हैं। उत्तर भारत में दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्परा की मूर्तियाँ बनी, जबकि दक्षिण भारत में केवल दिगम्बर परम्परा की ही मूर्तियाँ हैं।46
ऐसा कहा जाता है कि महावीर के जीवन काल में ही एक प्रतिमा का निर्माण किया गया था। जीवात्मस्वामी मूर्तियों को सर्वप्रथम प्रकाश में लाने का श्रेय यू.पी. शाह को है।47 साहित्यिक परम्परा को विश्वसनीय मानते हुए शाह ने महावीर के जीवन काल से ही जीवंतस्वामी मूर्ति की परम्परा को स्वीकार किया है। उनहोंने साहित्यक परंपरा की पुष्टि में अकोटा मुजरात