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जोड़े हुये कमल के फूल पर स्थित हैं। खड़ी हुई मूर्ति के एक हाथ में कमल का फूल तथा दूसरा वरह मुद्रा में नीचे की ओर लटका हुआ है। इन दोनों प्रकार के फलकों में गज स्नान करा रहे हैं। इसके साथ-साथ लक्ष्मी का स्वरूप प्राचीन भारतीय मुद्राओं, मुहरों, तथा अभिलेखों में भी चित्रित किया गया है। प्राचीन भारतीय मूर्तिकला तथा मुद्रा निर्माण कला में लक्ष्मी का चित्रांकन दूसरी शताब्दी ई.पू. से प्रारम्भ होकर बारहवीं ईसवीं तक चलता रहा । जैन कथा साहित्य के अनुसार समाज में चण्डिका देवी37 की अपूर्व शक्ति में विश्वास किया जाता था एवं मन्दिरों में उनकी मूर्ति स्थापित कर समुचित पूजा की जाती थी।38 उन की पूजा लोग समृद्धि के लिए करते थे। 9 चण्डिका की मूर्तियाँ अनेक स्थानों से प्राप्त हुई हैं।
मौर्यत्तर काल से ही सूर्य देव का स्वरूप दृष्टिगोचर होता है, और तभी से सूर्य देव की मूर्ति पूजा का प्रारम्भ होता है।+1 गुप्तकाल में सूर्य देव के बहुत से मंदिर निर्मित किये गये। कुमार गुप्त के शासन काल में सूर्य के सम्मान में मन्दसौर (मालवा) में तथा स्कन्दगुप्त के समय में मध्यदेश में सूर्य देव का मंदिर बनवाया गया जिसमें उन्हें भाष्कर कहकर उनकी प्रार्थना की गई है।+2 अलवरूनी ने थानेश्वर नामक नगर में सूर्य देव की एक विशाल मूर्ति देखी थी।43
खुजराहो में सूर्य देव की मूर्ति के चतुर्भुज मंदिर की दीवाले पर चित्रित किया गया है। वह सात छोड़ों से खींचे जाने वाले रथ में बैठे हुये चित्रित किये गये है। खुजराहों के संग्राहालयों में भी सूर्य मूर्ति देखने को मिलती है।
प्रतिमाविज्ञान की दृष्टिकोण से कुषाण गुप्त, प्रतिहार, चन्देल, और चौलुक्य, राजवंशों का शासन काल विशेष महत्वपूर्ण था। इन राजवंशो के काल में उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में मथुरा, देवगढ़, अकोटा खुजराहो, ओसिया, ग्यारसपुर, कुंभारिया, आबू जालोर, तंरगा, नवमुनिबारमुजी गुफाएँ एवं अन्य महत्वपूर्ण जैन कलाकेन्द्र पल्लवित और पुष्पित हुए।
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