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________________ इसका विकास हुआ है। गीता में परमात्मा कृष्ण की प्रतिष्टा आत्माद्वैतवाद से ही प्रभावित है।424 सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन: ॥ सर्वव्यापी अनन्त चेतन में एक ही भाव से स्थित रूप योग से युक्त आत्मा वाला तथा सबसे समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में देखता है। शंकराचार्य के पूर्व भगवद्गीता, उपनिषद, और ब्रह्मसूत्र वेदान्त के प्रस्थानत्रयी कहे जाते थे। पूर्व मीमांसा तथा उत्तर मीमांसा:-कर्मकाण्ड–वेदमन्त्रों में बतलाये हुए कर्तव्य कर्मो अर्थात् दृष्ट और पूत्त कर्मों की शिक्षा का नाम कर्मकाण्ड है। इष्ट वे कर्म हैं, जिनकी विधि मन्त्रों में दी गई हो, जैसे यज्ञादि; और पूत्त वे सामजिक कर्म हैं, जिनकी आज्ञा वेद में हो किन्तु विधि लौकिक हो, जैसे पाठशाला. कूप, विद्यालय अनाथालय आदि बनवाना इत्यादि। इन दोनों कर्मो के तीन अवान्तर भेद हैं-नित्मकर्म, नैमित्तिक कर्म और काम्य कर्म । (1) नित्यकर्म-जो नित्य करने योग्य हैं, जैसे पंच महायज्ञ आदि । (2) नैमित्तिक–वे कर्म हैं जो किसीनिमित्त के होने पर किये जायँ, जैसे पुत्र का जन्म होने पर जातकर्म-संस्कार (3) काम्य कर्म-जो किसी लौकिक अथवा पारलौकिक कामना से किये जायें। इनके अतिरिक्त कर्मों के दो और भेद हैं, निषिद्ध कर्म और प्रायश्चित कर्म । (क)-निषिद्ध कर्म-जिनके करने का शास्त्रों में निषेध हो ( 145 ) .
SR No.010266
Book TitleJain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Tiwari
PublisherIlahabad University
Publication Year1993
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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