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कुछ दार्शनिक विचारों का भी विवेचन किया गया है जिसके अन्तर्गत लोक-परलोक, जीव गति, कर्म गति आदि का विश्लेषण किय गया है।
जैन कथा साहित्य में संसार गति को दारूण बताया गया है। यहाँ इस संसार गति का हेतु मानव जीवन के कर्मों की परणति है |324 अत: जीव कर्म संयुक्त पाप से दुःख तथा धर्म कृत्य से सुख प्राप्त करता है ।325 भगवती सूत्र में इस संसार को शाश्वत बताया गया है।326 भगवान महावीर के अनुसार लोक किसी न किसी रूप में विद्यमान रहता है। अत: वह नित्य है, ध्रुव है, शाश्वत है एवं परिर्वतनशील है। यहाँ रहने वालो की कर्मगति के अनुसार कभी सुख की मात्रा बढ जाती तो कभी दु:ख की। इस संसार में जीव और अजीव नाम की दो वस्तुयें दिखाई देती हैं जो किसी के द्वारा नहीं बनायी गयी हैं 1327 अत: सभी प्राणी अपने कृत्यों के परिणामस्वरूप ही संसार गति के हेतु बनते हैं ।328 जैन दर्शन में जीव दो तरह के माने गये हैं-संसारी जीव और मुक्त जीव । संसारी जीव अपने कर्मों के अनुसार बार बार इस संसार के हेतु बनते हैं, किन्तु मुक्त जीव अपने कर्म बन्धन से मुक्त होकर निर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त होते हैं।329
प्राचीनतम निर्गन्थ सन्दर्भो में “कर्म” और “दण्ड” प्राय: परस्पर समानार्थक और परिवर्तनीय पद प्रतीत होते हैं। कर्म और उसका फल दोनों निरन्तर ही दुःखात्मक हैं-“किच्चं दुक्खं पुस्सं दुक्खं कज्जमानकडं दुक्खं कट्ट-कटटु पाणा भूया जीवा सत्ता वेयणं वेयंति330" और इस प्रकार दुखमय संसार का कारण कर्म के द्वारा पुरुष स्वयं है-“अत्तकडे दुक्खे ना परकड़े नो उभयकड़े 331 ।"
और अपने ही प्रयत्न के द्वारा दुःख से मोक्ष भी संभव है-“पुरिसा तुममेव तुम मित्ता किं बहिया मित्तमिच्छसि ।”332 कर्म का सिद्धान्त जैनों में विशेष विकसित हुआ और उत्तर काल में नाना परिभाषाओं और विभाजनों के द्वारा अत्यन्त जटिल हो गया। किन्तु यह संभव है कि अष्टविध कर्म की धारणा प्राचीन निर्गन्थो में भी विद्यमान थी। मृतक की गति के विषय में यह माना जाता था क जीव के निर्वाण के पाँच मार्ग हैं-पैरो से, उरुआं से वक्ष से, सिर से और सर्वांग
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