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जैन दर्शन जैनों के मत में जीव अरूपी अर्थात् अभौतिक सत्ता है जो न इद्रियों में उपलब्ध की जा सकती है, न भति और तर्क से। आयारंग का कहना है-"से न दीहै न हस्से न किण्हे न नीले अरूपी सत्ता से न सद्धे न रूवे न गन्धे न रसे न फासे 316 और "तक्का जत्थ न विज्जई मई तत्थ न गाहिया. “318 किन्तु ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक धर्म है, "जै आया से विन्नाया से आया। जेण विजाणाइ से आया तं पडुच्च पडिसंखाए एस आमावाई ।“319 आत्मा का स्वाभाविक ज्ञान विशुद्धावस्था में अनन्त होता है। इस सर्वज्ञता को केवल ज्ञान की संज्ञा दी जाती है। इस सर्वज्ञता को केवल ज्ञान की संज्ञा दी जाती है। ज्ञान के साथ ही आत्मा में अनन्त सुख भी स्वाभाविक है। और कम से कम उत्तर काल में, अनन्त क्रिया शक्ति को भी आत्मा में स्वीकार किया गया है।” अरूविणो जीवधणा नाणदंसनसंनिया । अडलं सुहं संवण्णा उवमा जस्स नत्थि उ ॥320 जीव असंख्य हैं और नाना अवस्थाओं में उपलब्ध होते हैं। पृथ्वी जल आदि भौतिक तत्वों में भी जीव पाये जाते हैं और प्राचीन जैन सन्दों में इसकी पर्याप्त चार्चा है। जीव स्थावर भी हैं और जंगम भी। कुछ असंज्ञी हैं जो केवल अनुभव कर सकते हैं, किन्तु ज्ञान में असमर्थ हैं। कुछ संज्ञी हैं जोकि अनुभव और ज्ञान दोनों की सामर्थ्य रखते हैं। सिद्ध जीव सर्वज्ञ होते हैं, पर ज्ञानातिरक्त अनुभव अथवा संवेदन नहीं करते । जीवों की सांसारिक गति कर्म के अधीन है। कर्म के कारण ही उनके जीवन पृथक्-पृथक् नियन्त्रित हैं-“अटु थावर य तसत्ताए तस जीवा या थावरत्ताए। अदु सव्वजोणिया सत्ता फम्मुणा कप्पिया पुढो ।"321 “कम्मा नानाविहा कटटु पुढो विस्संमिया पया।”322 कर्म स्वयं एक द्रव्यात्मक और पौद्गलिक पदार्थ है जिसका आधार अज्ञान और उससे उत्पन्न रागद्वेषादि कषाय हैं। कर्म से आत्मा का स्वाभाव आच्छन्न हो जाता है और वह अपने को अज्ञान, अशक्ति और दुख में निमग्न पाती है। जैन कथा साहित्य में जैन दर्शन का प्रधान लक्ष्य आत्मा को सांसारिक मायाजाल से मुक्त कराकर अनन्त सुख (मोक्ष) की प्राप्ति कराना है।323 श्रमण और श्रमण आचार्य के अतिरिक्त
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