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________________ समराइच्च कहा में किन्नरों का उल्लेख कई बार किया गया है ।192 इनके क्रिया कलाप सर्व साधारण लोगों से कुछ भिन्न होते थे। गंधर्वो की भाँति ये भी संगीत के प्रेमी होते थे ।193 प्राकृत ग्रन्थ अंग विज्जा में भी किन्नर किन्नारी को देवताओं की श्रेणी में गिना या गया है ।194 प्राचीन भारतीय लोक धर्म के अन्तर्गत किन्नरों के अस्तित्व में विश्वास किया जाता था।195 दिकपाल: जैन कथाओं में दिक पालों 196 के अस्तित्व का भी उल्लेख प्राप्त होता था। इन्हे दिशाओं का पालक अर्थात दिशाओं की रक्षा करने वाला देव समझा जाता था। यज्ञादि सत्कर्मों में दिक् पाल पूजा का विधान था।197 इन्हे मंदिरों के अगले भाग में चारों कोनों पर स्थापित किया जाता था। उनके स्थान इस प्रकार थे। दक्षिण-पूर्व में इन्द्र और अग्नि, दक्षिण-पश्चिम में यम और नैऋव्य, उत्तर-पश्चिम मे वरूण तथा वायु और उत्तर-पूर्व में कुबेर और ईशान देव, मुख्यतयः इनके चार भुजायें थीं लेकिन कभी-कभी दो भुजायें दिखलाई गई है।198 चारों दिशाओं के संरक्षक देव के रूप मे इनको मान्यता प्राप्त थी। पौराणिक आख्यानों से भी पताचलता है कि इन दिक्रपालों मे इन्द्रपूर्व के यम दक्षिण के वरूण पश्चिम के कुबेर और उत्तर के अधिपति देव माने जाते थे। इसी प्रकार अग्नि, नैऋत्य वायु और ईशान, क्रमश: दक्षिण-पूर्व, दक्षिण-पश्चिम, उत्तर-पश्चिम और उत्तर पूर्व के संरक्षक देव माने जाते थे ।199 विद्याधरःसमराइच्च कहा मे विद्या धरों का उल्लेख कई बार किया गया है ।200 तत्कालीन समाज में विद्याधर लोग श्रमणत्य की सिद्धि-01 के साथ-साथ यज्ञ-हवन आदि के द्वारा मंत्र-सिद्धि किया करते थे। सिद्धि से प्राप्त अलौकिक शक्ति के द्वारा वे सर्वसाधारण लोगों को प्रभावित किया करते थे ।202 इन्हीं सिद्धियों के कारण इन्हें देवताओं की श्रेणी में गिना जाता था। किसी महत्वपूर्ण कार्य के अवसर पर ये मुक्तहस्त से पुष्प-वर्षा भी करते थे। 203 समराइच्च कहा ( 117)
SR No.010266
Book TitleJain Katha Sahitya me Pratibimbit Dharmik Jivan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Tiwari
PublisherIlahabad University
Publication Year1993
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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