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निवास करते थे। स्थान चयन करने का मुख्य अभिप्राय यह होता था कि वह शुद्ध और सन्यासियों के रुकने के लिए उपयुक्त हो। आगम में निर्धारित नियमों के अनुसार उन्हे भिक्षा के भ्रमण पर जाना पड़ता था।116 वासुदेव हिण्डी में दो सन्यासियों का वर्णन है जो दोपहर के समय भिक्षा ग्रहण करने दसपुर गये हुए थे। वे उस मार्ग से गये जहाँ पर हिंसा हो जाने का भय नहीं था।117 वे भिक्षा के लिए उस स्थान पर खड़े होते थे जहाँ जीवधारी प्राणी न हो। जो लोग भिक्षा देते थे उनकी सामाजिक स्थिति पर ध्यान नहीं दिया जाता था। सन्यासी चाण्डाल के घर की भी भिक्षा ग्रहण करते थे।118
श्रमणाचार के अन्तर्गत भिक्षा वृत्ति से दिन में एक बार ही भोजन करने का विधान था।119 गोचरी के लिए प्रस्थान करने के पूर्व श्रमणों को आचार्य की अनुमति लेनी पड़ती थी।120 कभी-कभी तो उन्हे बिना भिक्षा के ही लौटना पड़ता था।121 अधिकतर लोग श्रद्धा और भक्ति से श्रमणों को भिक्षा प्रदान करते थे। आचारांग के अनुसार निर्गथियों के लिये अलाबु, काष्ठ एवं मिट्टी के बर्तन रखना आवश्यक था; उन्हे बहुमूल्य वस्त्र की तरह बहुमूल्य पात्र भी न रखने का विधान था।122 आवश्यक सूत्र में मुनि के ग्रहण करने योग्य चौदह प्रकार के पदार्थों का उल्लेख है, यथा-(1) अशन, (2) पान, (3) खादिम (4) स्वदिम (5) वस्त्र (6) पात्र (7) कम्बल (8) पाद-पोंछन (9) पीठ (10) फलक (11) शय्या, (12) संस्तारक (13) औषधि (14) भोजन ।123
जैन श्रमणों के गुरू को श्रमणाचार्य कहा जाता था। श्रेष्ठ ज्ञान युक्त श्रमण को आचार्य के योग्य समझा जाता था। वे तप, ज्ञान, योग, संयम से युक्त भूत, भविष्य, वर्तमान के जानकार होते थे तथा शिष्यों से घिरे रहते थे ।124 वे परलोक के ज्ञान से युक्त तथा अनेक ज्ञान के इच्छुक श्रमणों से घिरे हुए आर्जव, मार्दव, मुक्ति-तप-संयम, सत्य तथा ब्रह्मचर्यादि गुणों के अनुगामी होते थे।
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