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प्रायश्चित्त मार्ग उदारता स्वोपयोगनिमित्तानि तानि खाद्यानि मोदतः । स्वादूनि लडुकादीनि दत्त्वा तस्मै तपोभूते ॥ ११ ॥ नवभेदं जिनोद्दिष्टमदृष्टं स्वेष्टमापतुः । इस कथा भाग से यह स्पष्ट सिद्ध है कि इतने अनाचारी लोग भी मुनिदान देकर पुण्य संपादन कर सकते हैं । यदि कोई यो कुतर्क करे कि मुनि महाराज को उनके पतन की खबर नहीं .थी, सो भी ठीक नहीं है। कारण कि यदि उनका ऐसी स्थिति में
आहार देना अयोग्य होता तो वे पापबन्ध करते किन्तु उनने तो आहार देकर नौ प्रकार का पुण्य संपादन किया था । और दुर्गति में न जाकर राजघरों में उत्पन्न हुये । कहां तो यह उदारता
और कहां आजके अविवेकी पक्षांध लोग शुद्धलोहड़साजन भाइयों के हाथ का आहार लेना अनुचित बतलाते हैं और कुछ पक्षपाती मुनि ऐसी प्रतिज्ञायें तक लिवाते हैं ! इस मूढ़ता का क्या कोई ठिकाना है ? ___ कोई यो कुतर्क उठाते हैं कि प्रायश्चित्त विधान तो पुरुषों को लक्ष करके ही किया गया है, स्त्रियों के लिये तो ऐसा कोई विधान है ही नहीं। तो वे भूलते हैं। कारण कि कई जगह प्रायः पुरुषों को लक्ष रख कर ही कथन किया जाता है किन्तु वही कथन त्रियों के लिये भी लागू होजाता है। जैसे
(१) पंचाणुव्रतों में चौथा अणुव्रत 'स्वदार संतोप' कहा है। यह पुरुषों को लक्ष करके है । कारण कि स्वदार (स्वस्त्री) संतोषपना पुरुष के ही हो सकता है। फिर भी स्त्रियों के लिये इसे 'स्वपुरुप संतोष' के रूपमें मान लिया जाता है।
(२) सात व्यसनों में 'परस्त्री सेवन' और 'वेश्यागमन' भो