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जैनधर्म की उदारता
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नादाविह संसारे दुवारे मकरध्वजे । कुले च कांमनीसूले का जातिपरिकल्पना ॥ अर्थात् - इस अनादि संसार में कामदेव सदा से दुर्निवार चला आ रहा है । तथा कुल का मूल कामनी है । तब इसके आधार पर जाति कल्पना करना कहां तक ठीक है ? तात्पर्य यह है कि न जाने कब कौन किस प्रकार से कामदेव की चपेट में आ गया होगा । तब जाति या उसकी उच्चता नीचता का अभिमान करना व्यर्थ है । यही वात गुणभद्राचार्य ने उत्तरपुराण के पर्व ७४ में और भी स्पष्ट शब्दों में इस प्रकार कही हैवर्णाकृत्यादिभेदानां देहेऽस्मिन्न च दर्शनात् । ब्राह्मण्यादिषु शूद्राधैर्गर्भाधानप्रवर्तनान् ॥ ४६१ ॥ अर्थात् इस शरीर में वर्ण या आकार से कुछ भेद दिखाई नहीं देता हैं । तथा ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्यों में शूद्रों के द्वारा भी गर्भाधान की प्रवृति देखी जाती हैं । तब कोई भी व्यक्ति अपने उत्तम या उच्च वर्ण का अभिमान कैसे कर सकता है ? तात्पर्य यह है कि जो वर्तमान में सदाचारी है वह उच्च है और जो दुराचारी है वह नीच है ।
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इस प्रकार जाति और वर्ण की कल्पना को महत्व न देकर जैनाचार्यों ने आचरण पर जोर दिया है। जैनधर्म की इस उदारता को ठोकर मार कर जो लोग अन्तर्जातीय विवाह का भी निषेध करतें हैं उनकी दयनीय बुद्धि पर विचार न करके जैन समाज को अपना क्षेत्र विस्तृत, उदार एवं अनुकूल बनाना चाहिये ।
जैन शास्त्रों को, कथा ग्रंथों को या प्रथमानुयोग को उठाकर देखिये, उनमें आपको पद २ पर वैवाहिक उदारता नजर आयेगी । पहले स्वयम्बर प्रथा चालू थी, उसमें जाति या कुल की परवाह न करके गुण का ही ध्यान रखा जाता था । जो कन्या किसी भी छोटे
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