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जैनधर्म की उदारता . : .. . आचारों की रक्षा करना चाहिये । यदि कुलाचार-विचारों की रक्षा नहीं की जाय तो वह व्यक्ति अपने कुल से नष्ट होकर दूसरे कुल ... वाला हो जायगा। .. ..... .... .., ___ तात्पर्य यह है कि जाति, कुल, वर्ण आदि सब क्रियाओं पर... निर्भर हैं। इनके बिगड़ने सुधरने पर इनका परिवर्तन होजाता है।...
. गोत्र परिवर्तन । दुःख तो इस बात का है कि आगम और शास्त्रों की दुहाई : देने वाले कितने ही लोग वर्ण को तो अपरिवर्तनीय मानते ही हैं ..
और साथ ही गोत्र की कल्पना को भी स्थाई एवं जन्मगत मानते हैं. : किन्तु जैन शास्त्रों ने वर्ण और गोत्र को परिवर्तन होने वाला वता: कर गुणों की प्रतिष्ठा की है तथा अपनी उदारता का द्वार प्राणी, मात्र के लिये खुला करदिया है। दूसरी बात यह है कि गोत्र कर्म .. किसी के अधिकारों में बाधक नहीं हो सकता। इस संबंध में... यहां कुछ विशेष विचार करने की जरूरत है। ...
सिद्धान्त शास्त्रों में किसी कर्म. प्रकृति का अन्य प्रकृति रूप.. होने को संक्रमण कहा है। उसके. ५भेद होते हैं--उद्वलन विध्यात, अधः प्रवृत्त, गुण और सर्व संक्रमण | इनमें से नीच गोत्र के दो संक्रमण हो सकते हैं। यथा--:............. सत्तएहं गुणसंकममधापवत्ता य दुक्खमसुहगदी। संहदि संठाणदसं णीचा पुण्ण थिरछक्कं च ॥ ४२२ ॥ बीसराहं विज्झादंअधापबत्तों गुणो य मिच्छत्त।४२३॥कर्मकांड
- असातावेदनीय, अशुभंगति, ५ संस्थान, . सहनन, नीच गोत्र . · अपर्याप्त, अस्थिरादि ६ इन २० प्रकृतियों के विध्यात, अधःप्रवृत्त :: .. और गुण संक्रमण होते हैं । अतः जिस प्रकार असाता वेदनीय,