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वर्ण परिवर्तन
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होजाना निश्चत है । शास्त्रों में भी वर्ण लाभ करनेवाले को अपनी पूर्वपत्नी के साथ पुनर्विवाह करनेका विधान पाया जाता है यथा“पुनर्विवाहसंस्कारः पूर्वः सर्वोऽस्य संमतः " आदिपुराण पर्व ३६-६०॥ इतना ही नहीं किन्तु पर्व ३६ श्लोक ६१ से ७० तक के कथन से स्पष्ट मालूम होता है कि जैनी ब्राह्मणों को अन्य मिध्यादृष्टियों के साथ विवाह संबंध करना पड़ता था, बाद में वह ब्राह्मण वर्ण में ही मिलजाते थे । इस प्रकार वर्णों का परिवर्तित होना स्वाभाविक साहोजाता है । अतः वर्ण कोई स्थाई वस्तु नहीं है यह बात सिद्ध हो जाती है। आदि पुराण में वर्ण परिवर्तन के विषय में क्षत्रियों को क्षत्रिय होने बाबत इस प्रकार लिखा है कि
"क्षत्रियाश्च वृत्तस्था: क्षत्रिया एव दीक्षिता: " ।
इस प्रकार वर्ण परिवर्तन की उदारता बतला कर जैनधर्म ने अपना मार्ग बहुत ही सरल एवं सर्व कल्याणकारी करदिया है । यदि इसी उदार एवं धार्मिक मार्ग का अवलम्बन किया जाय तो जैन समाज की बहुत कुछ उन्नति हो सकती है और अनेक मनुष्य जैन बनकर अपना कल्याण कर सकते हैं। किसी व या जाति को स्थाई या गतानुगतिक मान लेना जैनधर्म की उदारता का खून करना है । यहां तो कुलाचार को छोड़नेसे कुल भी नष्ट हो जाता है यथा
कुलावधिः कुलाचाररक्षणं स्यात् द्विजन्मनः । तस्मिन्न सत्यसौ नष्टक्रियोऽन्यकुलतां व्रजेत् ॥ १८१| . - आदिपुराण पर्व ४० । अर्थाह्मणों को अपने कुल की मर्यादा और कुल के