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प्रास्ताविक निवेदन । तथा दैशिक परिस्थितियोंका बहुत कुछ पता चलकर ऐतिहासिक क्षेत्रपर एक अच्छा प्रकाश पड़ सके । हमारे जैनी भाई, आमतौरपर, अभीतक यह समझे हुए हैं कि हिन्दू धर्मके आचार्यों में ही परस्पर मत-भेद था। इसीसे उनके श्रुति-स्मृति आदि ग्रंथ विभिन्न पाये जाते हैं। जैनाचार्य इस मतभेदसे रहित थे। उन्होंने जो कुछ कहा है वह सब सर्वज्ञोंदित अथवा महावीर भगवानकी दिव्यध्वनि-द्वारा उपदेशित ही कहा है। और इस लिये, उन सबका एक ही शासन और एक ही मत था। परन्तु यह सब समझना उनकी भूल है। जैनाचार्यों में भी चरावर मत-भेद होता आया है। यह दूसरी बात है कि उसकी मात्रा, अपेक्षाकृत, कुछ कम रही हो, परन्तु मतभेद रहा जरूर है । मत-भेदका होना सर्वथा ही कोई बुरी बात भी नहीं है, जिसे घृणाकी दृष्टिसे देखा जाय । सदुद्देश्य और सदाशयको लिये हुए मत-भेद बहुत ही उन्नतिजनक होता है और उसे धर्म तथा समाजकी जीवनीशक्ति और प्रगतिशीलताका द्योतक समझना चाहिये। जव, थोड़े ही काल x बाद महावीर भगवानको श्रीपार्श्वनाथ तीर्थंकरके शासनसे अपने शासनमें, समयानुसार, कुछ विभिन्नताएँ करनी पड़ी-जैसा कि 'मूलाचार आदि ग्रंथोंसे प्रकट है-तब दो ढाई हजार वर्षके इस लम्बे चौड़े समयके भीतर, देशकालकी आवश्यकताओं आदिके अनुसार, यदि जैनाचार्योंके शासनमें परस्पर कुछ भेद होगया है-वीर भगवानके शासनसे भी उनके शासनमें कुछ विभिन्नता आगई है--तो इसमें कुछ भी आश्चर्यकी बात -अथवा अप्राकृतिकता नहीं है। जैनाचार्य देश-कालकी परिस्थितियोंके
x कोई २२० वर्षके बाद ही; क्योंकि पार्श्वनाथके निर्वाणसे महावीरके तीर्थका प्रारंभ प्रायः इतने ही वोंके बाद कहा जाता है।