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जैनाचार्योंका शासनभेद शासनसे बाहर नहीं हो सकते *। इन्हीं सब बातोपर प्रकाश डालनेके लिये यह जैनाचार्योंकि शासन-भेदको प्रदर्शित करनेका प्रयत्न किया जाता है। ___ यहाँपर मैं इतना और भी प्रकट कर देना जरूरी समझता हूँ कि
जैनतीर्थंकरोंके विभिन्न शासनमें परस्पर उद्देश्यभेद नहीं होता। समस्त जैनतीर्थंकरोंका वही मुख्यतया एक उद्देश्य 'आत्मासे कर्ममलको दूर करके उसे शुद्ध, सुखी, निर्दोप और स्वाधीन बनाना' होता है। दूसरे शब्दोंमें यों कह सकते हैं कि संसारी जीवोंको संसार-रोग दूर करनेके मागेपर लगाना ही जैनतीर्थकरोंके जीवनका प्रधान उद्देश्य होता है।. एक रोगको दूर करनेके लिये जिस प्रकार अनेक ओषधियाँ होती हैं और वे अनेक प्रकारसे व्यवहारमें लाई जाती हैं; रोगशान्तिके लिये उनमेंसे जिस वक्त जिस जिस ओषधिको जिस जिस विधिसे देनेकी जरूरत होती है वह उस वक्त उसी विधिसे दी जाती है. इसमें न कुछ विरोध होता है और न कुछ बाधा ही आती है, उसी प्रकार संसाररोग या कर्मरोगको दूर करनेके भी अनेक साधन
और उपाय होते हैं और जिनका अनेक प्रकारसे प्रयोग किया जाता है, उनमेंसे तीर्थंकर देव अपनी अपनी समयकी.स्थितिके अनुसार जिस जिस उपायका जिस जिस रीतिसे प्रयोग करना उचित समझते हैं उसका उसी 'रीतिसे प्रयोग करते हैं। उनके इस प्रयोगमें किसी प्रकारका विरोध या बाधा उपस्थित होनेकी संभावना नहीं हो सकती। परन्तु
* इन्द्रनन्दिने अपने 'नीतिसार' ग्रंथमें, यह प्रकट करते हुए कि पंचम कालमें महावीर भगवानका शासन इस भरतक्षेत्र में नानासंघोंसे आकुल (पीडित) हो गया है, खेदके साथ लिखा है 'विचित्राः कालशक्तयः -कालकी शक्तियाँ बड़ी ही, विचित्र हैं। उनका शासन सभीपर होता है; कोई उससे वचः नहीं सकता।