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जैनाचार्योंका शासनभेद 'पंचाध्यायी' के कर्ता *महोदयका भी यही मत है। और वे यहाँ तक लिखते हैं कि इन आठ मूलगुणोंके बिना कोई नामका भी. श्रावक नहीं होता । यथाः
मद्यमांसमधुत्यागी त्यक्तोदुम्बरपंचकः । नामतः श्रावकः ख्यातो नान्यथापि तथा गृही।
उ०-७२६॥ पुरुषार्थसिद्धयुपायके निर्माता श्रीअमृतचंद्रसूरि भी इसी मतके पोपक हैं । यद्यपि उन्होंने, अपने ग्रंथमें, अहिंसा व्रतका वर्णन करते हुए इनका विधान किया है और इन्हें स्पष्टरूपसे 'मूलगुण' ऐसी संज्ञा नहीं दी है, तो भी 'हिंसाके त्यागकी इच्छा रखनेवालोंको पहले ही इन मद्यमांसादिकको छोड़ना चाहिए,' ' इन आठ पापके ठिकानोंको त्याग कर ही शुद्धबुद्धिजन जिनधर्मकी देशनाके पात्र होते हैं।' इन वचनोंसे अष्ट मूलंगुणका ही साफ़ आशय पाया जाता है । यथाः
मयं मांसं क्षौद्रं पंचोदुम्बरफलानि यत्नेन । हिंसाव्युपरतकामैर्मोक्तव्यानि प्रथममेव ।। ६१ ।। • अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनान्यमूनि परिवर्य ।
जिनधर्मदेशनाया भवंति पात्राणि शुद्धधियः ॥७४॥ उपर्युक्त चारों ग्रंथोंके अवतरणोंसे यह विलकुल स्पष्ट है कि इनके कर्ता आचार्योंने 'पंच अणुव्रतों' के स्थानमें 'पंच उदुम्बर फलोंके त्याग' का विधान किया है और इसलिए इन आचार्योका शासन समन्तभद्र और जिनसेन दोनोंके शासनसे एकदम विभिन्न जान पड़ता
* पंचाध्यायी'के कर्ता कविराजमल्ल हुए हैं, जिनका बनाया हुआ 'लाटीसंहिता' नामका एक श्रावकाचार ग्रंथ भी है। उसमें भी आपने अपना यह मत इसी श्लोकमें दिया है।