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अष्ट मूलगुण
ऐसी ही परिस्थिति हो जिसके कारण उन्हें ऐसा करनेके लिये बाध्य होना पड़ा हो-वहाँ धूतका अधिक प्रचार हो और उससे जनताकी हानि देखकर ही ऐसा नियम बनानेकी जरूरत पड़ी हो-अथवा सातों व्यसनोंका मूलगुणोंमें समावेश कर देनेकी इच्छासे ही यह परिवर्तन स्वीकार किया गया हो। और 'मधुविरति' को इस वजहसे निकालना पड़ा हो कि उसके रखनेसे फिर मूलगुणोंकी प्रसिद्ध ' अष्ट' संख्या वाधा आती थी। अथवा उसके निकालनेकी कोई दूसरी ही वजह हो। कुछ भी हो, दूसरे किसी भी प्रधानाचार्यने, जिसने अष्ट मूलगुणोंका प्रतिपादन किया है, 'मधुविरति' को मूलगुण माननेसे इनकार नहीं किया और न 'यूतविरति' को मूलगुणोंमें शामिल किया है।
(३) 'यशस्तिलक' के कर्ता श्रीसोमदेवसूरि मद्य, मांस और मधुके त्यागरूप समन्तभद्रके तीन मूलगुणोंको तो स्वीकार करते हैं परंतु पंचाणुव्रतोंको मूलगुण नहीं मानते, उनके स्थानमें पंच उदुम्बर फलोंके-लक्ष, न्यग्रोध, पिप्पलादिके--त्यागका विधान करते हैं और लिखते हैं कि आगममें गृहस्थोंके ये आठ मूलगुण कहे हैं । यथा:
मद्यमांसमधुत्यागाः सहोदुम्बरपंचकैः ।
अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणाः श्रुते ॥ 'भावसंग्रह' के कर्ता देवसेन आचार्य भी इसी मतके निरूपक हैं।
न्यथाः
महुमज्जमंसविरई चाओ पुण उंवराण पंचण्हं । अहेदे मूलगुणा हवंति फुड्डु देसविरंयम्मि ॥ ३५६ ॥.