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Sangheeji. Jain Temple Granthi Bliandár
दोहा
Ends.
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-पंच वरण मय मन्त्र यह है जु अनादि अनंत ।
श्री ॐकार नमू सदा महिमा जासु महंत ॥ -अरु ज्ञान अनंत गणन धारण किया सर्व प्रकार सर्व पदार्थनिकी अनंतानंत: परणतिन-काल सबंधी जात है। अरु जाके शक्ति एके काल लक्षणमात्र करि जगत के उद्धार करण विपे समर्थ है। अरु जाके सोख्य वाधा रहित. भया असे सिद्ध प्रभू देहादि कंपी जरे रहितं हुवे तेह मारी रक्षा कर हूँ या प्रकार नाटक समाप्त भया । अब सकल ही नाटक के अखाडै ते नीसरि गयो।
Scribal remarks:
उत्तम जन की है यह रीति किंचित गुण लखि करि है प्रीति दुर्जन कछु भौगुण लखि ले तवे तो सौ प्रकास करि देत । मैं निजपर उपगार निमित्त वनिका करि सुचित और प्रयोजन में जिन मंदिर बने सुमनाय तणं हैं घने हम हू माफिक धन बन वापरेषम देव स्वामी पधराय २५। छांही बैठी वचनिका कर । साधर्मी सुभ मद्य पाचरै । वाचे श्रत भगतावर लाल। उज्जल बुद्धि कासलीवाल । २६॥ हम रे या परि- प्रीति विसेस गोम्मटसार पढत है। वेस पुत्र मित्र सम मरं यही है या समान और नहीं ॥२७॥ जयपुर में बसू एक श्रावक खण्डेलवाल जैनी निगोत्या पार्श्वदास यूं कहायो है । सैली के प्रसाद समझि मिथ्या विप वम की यो सदासुख जू साहिब पासि नाटक सुनि पायो है। स्याद्वाद रूप छहू द्रव्य को स्वरूप जाणि प्रात्मरूप परख्यो अनुभूति रूप गायो है । नाटक वनिका करि बांचो साधर्मी जन अनुभव को ग्रन्थ भाव माय यो रचायो है ॥२८॥ चौपई ।। मंगल श्री श्री पाश्र्वजिनंद मंगल । श्री निर-ग्रंथ मुनिदं मंगल श्री। दशलक्षण धर्म । पुण्य भर और हरे कु कर्म ॥२६॥ दोहा । --है अनुभव को ग्रन्थ 'यह वाचों सुणों सुजीव"।
उर बीच अनुभव कीजियो पावो सोख्य अतीव ॥३०॥ वादिचन्द्र सूरी कियो मूल प्रथ परकास ॥ देश वनिका मय रच्यो ताकू पारसदास ॥३१॥ समत उगणी सै को साल ता परिसतरा लिखो ॥
विसाल एक मास में पुरण भयो बुदि वैसाख छठि लिख दियो ॥३२॥.. " इति श्री वादिचंद्र सूरी विरचित ज्ञानसूर्योदय नाटकं नाम संस्कृत ग्रन्थ ताकी" देसभाषा मय वचनिका पार्श्वदास निगोत्या 'कृत संपूर्ण ॥१॥ श्री ) लीख्यों गयो मीति पोस सुदो ११ न संवत् १६१७ का। श्री श्री श्री।। :
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