________________ श्रीशांतिनाथनो रास खंम बहो. 435 // ढाल सत्तावनमी॥ // उत्तहो मानवनव लाधो // ए देशी // कहे चक्रायुध केवल नाणी, सांजलो सदु नवि प्राणी॥जव अनादि संयोग ए दीसे,गुं देखि देखी हीसे रे॥१॥ जविका, धर्म करो मद मूकी॥ नतिर जाशो नव चूकी रे॥॥ ए आंकणी // मनमांहे चिंते मात पिता मुफ, नाई ने जोजाई // पण को काम पड़े नवि आवे, साथै आप कमाई रे ॥न // 5 // लोन घणो म नमांहे राखे, मेले धन के लाख // पाप परिग्रह नेलो कीधो, पण अंतें सद् राख रे // 0 // 3 // मनमांहे जाणे मान तणे वश,पूरूं दुं सदु / नुं पा९॥ शीख देयंतां नागे अवलो, बोले वायक डेरे // // 4 // वेदु प्रकारे वालपणुं निज, पोपे बहु थारंनी // निष्कारण जगमांहे बांधे, कर्म कतिन सारंजी रे // ज० // 5 // पुगलनी मू माहे पडियो, पाप कर्म करे के // करे अन्याय रहे वलि अलगो, परने माथे देई रे // ज० // 6 // त्रीश महामोहस्थानक वारो, निज आतम साधारो॥ कहे चक्रा युध गणधर गिरुन, ते नवि हृदयमा धारो रे // // // जलमांहे पेसी जे हो त्रसने, मत्स्यादिकने जलशस्त्रे // पादादिक आक्रमण करीने, प्रथम स्थानक कह्यु शास्त्रे रे ॥ज॥७॥ वाध लीले त्रस जीवने वींटी,जे हणे ते दुःख लहेशे // हाथे मुख रूंधी हणे त्रसने, कहो तस शी गति हो रे // // ए॥ मंझप वाडादिकमांहे केपी, धूमाकूल करि मारे // महा मोहस्थानक सेवंतो, रुले चिढुंगति संसारें रे // न // 10 // उष्ट मने असि मुजर शस्त्रे, उत्तम अंग विदारे // निर्दय परिणामी त्रस ऊपर, करतो ए कर्म वधारे रे // ज० // 11 // मायायें वेश लेई वणिजादिक, पंथ चलीने सायें // वचमांहे गलकर्तन करे पापी, जूमा कह्या जगनायें रे॥०॥ 12 // गूढाचार निगृहे नूंमो, मायायें परमाया / आबादे जिम शकुन विघातक,बद ढांके निज काया रे // न // 12 // ए बहुं स्थानक मत सेवो, हवे सप्तम सुणो प्राणी // असत्यवादी सुत्रारथ निहव, कह्यो जिन अवगुण खाणी रे // ज० // 14 // उष्टाचरण रहितने अंते, याप करे अपराधे // बायानश करे ते पापी, आतमगुणथी न वाधे रे // // न // 15 // नवमे जाग दूं तो पर्षदमां,साचां जूतां जे बोले // कल . हथकी अणविरम्यो मानव, नावे कोडी मूलें रे // ज० // 16 // नाय