________________ 434 . जैनकथा रत्नकोप नाग आठमो. गमा धन्य ते नर नारी रे // // करी निर्वाणमहोत्सव महाल्या, नंदीवर चात्रायें चाख्या रे // // // 17 // करि जिननक्ति तिहां जले , जावे, कर जोडी जिनगुण गावे रे ॥प्र० // वावन प्रासादे जिनराया, प्रजी करे निर्मल काया रे // // 17 // प्रचुगुणझानमां तान व नावी, घणी वार त्यां नावना जावी रे // प्र // निज निज स्थानक ते सुर जावे, दिलमा प्रचुके गुण ध्यावे रे // 0 // 1 // समकितवंत तणी ए करणी, नवसायरपार उतरणी रे // प्र० // कुगति हरी दिये मुक्ति सहेली, प्रनुपूजायें दरिसण नेली रे // // 20 // ढाल ठप्पनमी खंमें बहे, अनु पूजो चित्त अकुंठे रे ॥प्र० // रामविजय कहे उत्तम तेह, जेहने प्रनु साथै सनेह रे // प्र० // 21 // सर्वगाथा // 2146 // // दोहा // ॥जिनवर मुक्ति पधारिया, चक्रायुध गराधार // प्रगुण समरंता / मनें, महियल करे विहार // 1 // साधु संघातें परिवस्या, सुधा समता वंत // नविकजीव प्रतिवोधता, सुरनरसेवित संत // // गुण सत्या वीश साधुना, अंगें धरे अागार // समतारसमाहे फीलता, नहिं ममता अहंकार // 3 // धरति निवारी चित्तथी, रतिपति न लहे लाग॥ चक्रायुध गराधर तj, जग प्रसयुं सोजाग्य // 4 // प्रातम गुण वाडी जली, सींचे उपशम नीर // वानर इंडिय चपलता, काढी मूके धीर // // 5 // कटुक जाड काढयां परां, क्रोधादिक जस नाम // वाडी नली वे राग्यनी, चोपर अजिराम // 6 // शांतिनाथ जिनराजनी, शिरपर धारे याण // न्याहाद मत उपदिसे, नय गम नंग प्रमाण // 7 // इव्ये गुण पर्यायनु, चिंतन करे सुधर्म // अप्रमत्तता नृमिमां, निबिड खपाध्यां कर्म // 7 // नर्म मट्यो मोहरायनो, चेतन कीधी केडि / / करणशस्त्र करमां ग्रही, नाल्यो मोह उखेडि // ए // श्रेणि चढी गुरागणमां, बरतावे निजाण // वीतरागना नावथी, पाम्यो केवलनाण // 17 // रथ सुरादिक सवि मिट्या, उत्सव करे अपार // गगनें गाजे इंडन्नि, बरत्यो जय जयकार // 11 // नवस्वरूप नाटक समुं, दीहूं नजरें ताम // जव्य जीवनी यागलें, दिये देशना श्राम // 12 //