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४२७ जैनकथा रत्नकोप नाग आठमो. चनचूड अनिधान ॥ ६॥ वालपणे शीखी कला, सकल करी तेणें । चूंप ॥ यावन वय मन मोहतो, मानिनी तणां अनूप ॥ ७ ॥
॥ढाल उगएपञ्चासमी॥ ॥ मन मोहन लाल ॥ ए देशी ॥ एक दिवस हट शहेरमा रे ॥ मन मोहना लाल ॥ चाल्यो रत्नचूड ताम हो ॥ जनरंजनां लाल ॥ मारगमां । सामी मली रे ।। म ॥ सोनाग्यमंजरी नाम हो ॥ जन॥ १ ॥ नृप मन मानीती घणुं रे ॥ म० ॥ गणिका ते मदवंत हो ॥ ज० ॥ खंधे तेणें दूहबी रे ॥म ॥ बोले ते एम तंत हो ॥ ज ॥ २ ॥ पालव साही . तेहनो रे ॥म ॥ बोली करी उपहास्य हो ॥ ज० ॥ नंदन सुण तुं शेग्ना रे ॥ म ॥ पंमित जननी जास हो ॥ न० ॥ ३ ॥ धनें अनेड मूकापणुं रे ॥म ॥ पश्यतने पण दोय हो ॥ ज० ॥ जे तुं बाल दिवसमां रे ॥म ॥ न चले सहामुं जोय हो ॥ ज० ॥४॥ देखे नहिं मुफ श्रावती रे ॥ म ॥ धनमद न घटे ए तुक हो ॥ ज० ॥ ते माटें कहे नीतिनां रे ॥ म ॥ जाए वचन ए गुऊ हो ॥ ज० ॥५॥ जनक उपार्जित वित्तगुं रे ॥ म ॥ न करे कोण विलास हो ॥ ज० ॥ निजलुज अर्जित संपदा रे ॥ म ॥ विलसे तस सावाश हो ॥ ज० ॥ ॥ ६ ॥ एम कही स्थानक गई रे ॥म० ॥ गणिका गुणर्नु पात्र हो . ॥ ज० ॥ रत्नचूड मन चिंतवे रे । म ॥ करूं हवे परदेशयात्र हो ॥ जय ॥ ७ ॥ सत्यवचन करतुं सही रे॥ म० ॥ एहनुं में धनत हो ॥ ज० ॥ धन धापी परदेशथी रे ॥म० ॥ करुं पूर्ण संकेत हो ॥ ज० ॥ ७॥ घर थाव्यो रत्नचूडजी रे ॥म ॥ मन धरतो विपवाद हो ॥ ज० ॥ पूरे पिता श्रावी तदा रे ॥ म० ॥ धरतो मन आल्हाद हो ॥ ज० ॥
॥ श्याम बदन केम ताहरू रे ॥ मा दीसे कां दिलगीर हो ॥ ज० ॥ किसी अनुरति ताहरे रे ॥ म० ॥ तुं मुझ मनडानो हीर हो ॥ ज० ॥ ॥ १० ॥ तात जश परदेशमा रे ॥ म ॥ धन उपराजण काज हो ॥ ज० ॥ चौवनवय निज जनकनी रे ॥ म० ॥ ऋषि जोगवतां लाज हो ॥ ज० ॥ ११ ॥ कहे रत्नाकर वत्स तुं रे ॥ म ॥ नानडियो मुकु मार हो ॥ ज०॥ केम परदेश एकलो रे ॥म ॥ में मोकनाये बाल हो । ज ॥ १२ ॥ वत्स विलसो सुख मंदिर रे ॥ म ॥ नित्य नवला'