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श्री शांतिनाथनो रास खंम बहो. ४२७ वृत्ति आर्जवनामे राणी, तेहेनी मनोहारि ॥ धर्म नृपति कंत सायें, रहे अनेद विचार ॥ रे जी ॥ ए ॥ सचिव महोटो सवल गुणवंत, नामथी संतोप ॥ अहोनिशे निज स्वामीसेंती, वाध्यो प्रेमनो पोप ॥ रे जी० ॥ १० ॥ ममलेश्वर अ आगे, नाम समकित धीर ॥ सामंत व्रत गुण मूल केरा, रहत पास अनीरु ॥ रे जी० ॥ ११ ॥ अणुव्रतादिक पत्ति व दुला, रहत जास समीप ॥ मातंग मार्दव नाम गर्जत, वडो ए अवनीप ॥रे जी० ॥ १५ ॥ योध उपशम आदि जिनके, बहुत हे जूंकार ।। चारित्ररथ चढी चलत आगे, श्रुत सेनानी सार ॥ रे जी० ॥ १३ ॥ करी मानस हाथ अपने, सवल धर्मनरिंद ॥ देहपुरमा आय अ पनी, वसति करे अहमिंद ॥रे जी० ॥ १४ ॥ निर्धाटियो तव मोह नृपकों, वरती अपनी प्राण ॥ मोहकों अवकाश कोइ, देहु मत गुण खाणि ॥रे जी ॥ १५ ॥ वदुत दिनकी आण उनकी, करत हूवे हे रान ॥ विश्वास ए अन्याय नृपको, म कर चतुर सुजाण ॥रे जी० ॥ १६ ॥ जो कदाचित् मोहके वश, होत ए अज्ञान ॥ कर्मपरिणति फेरि ननकों, लेइ स्थापे गण ॥रे जी० ॥ १७ ॥ जेम अनीतिपुरें विप त्तिमां, वणिकसुत बुद्धि दान ॥ रत्नचूडने उदयो यम, घंट गणिका जाण ॥रे जी० ॥ १७ ॥ कुण दु ते कवण गामें, कहे संघ कर जोडि ॥ कहे गणधर प्रथम तेहनी, कथा मनने कोड ।। रे जी० ॥१॥ खेम बहे एह नांवी, ढाल ए अडयाल ॥ रत्नचूड तणुं हवे नवि, सुणो चरित नजमाल ॥रेजी० ॥ २० ॥ सर्व गाथा ॥१७७७॥ श्लोक ॥७॥
॥दोहा॥ ॥ जरतदेत्रमा अति नली, वहु इन्यनो वास ॥ तामलित्ती नगरी 'घएं, दी होय उनास ॥ १ ॥ गढ़ मढ मंदिर मालीयां, चोराशी वा जार ॥ अमरपुरी मर्नु अवतरी, मानव लोकमकार ॥ २ ॥ सदाचार वासे वसे, रत्नाकर तिहां शेत ॥ दोलतने दोरें करी, वीजा सा ए देव ॥ ३ ॥ तस घरपी पुण्यातमा, लावण्यरुप निधान ॥ सरस्वती नामें जली, प्रीतमनुं बदु मान ॥४॥ निजकरगत महारत्न शिरव, उद्योतित निजधाम ॥ निशा शेष देखी सुपन. कहे पियुने अनिराम ॥ ५ ॥ प्रिये तनय होशे नलो, हरवी निसुणी वाणि ॥ सुत जन्म्यो समय तिणे,